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{{KKRachna
|रचनाकार=पूनम सिंह
|संग्रह= }}
<poem>
गहरी थकान और हताशा लिये
लौट आये हैं पिता
झुके कंधे गर्द भरे चेहरे पर
आहत उम्मीदों की लहूलुहान खरोंचे
आँखों के कोये में
समुद्री नमक का भहराता टीला
होठों पर मुर्दा चुप्पी लिये
सपनों की शव यात्रा से
राख की गंध में लिथड़े
पिता के चेहरे की ओर कैसी कातर
कितनी असहाय आँखों से देखती है माँ
किस अतल से निकला है
यह निःश्वास...
जिसमें मौत सी ठंडक है
ओ माँ! मैं कहाँ जाऊँ
किस पाताल कुँए में डूब मरूँ-बोलो?
क्यों नहीं आती मुझे मौत
जब बेमौत मरते हैं इतने लोग
आता है भूचाल
दरक जाती है धरती
औंधा गिर जाता है आसमान
नमक पानी के पारावार में
तिनके सी बह जाती है जिन्दगी
तब ऐसा कोई सूनामी
मुझे क्यों नहीं बहा ले जाता माँ
क्यों? क्यों?
मैं हरगिज नहीं चाहती पिता की साँस में
फाँस बनकर जीना
तुम्हारी छाती पर अडिग पहाड़ बनकर रहना
भाभी की आँखों में शूल की तरह चुभना
भाई की अनकही पीड़ा में
पतझड़ के उदास रंग की तरह दिखना
लेकिन मैं क्या करूँ माँ
मेरे बस में नहीं है
यह सब न होना
कभी कभी
इस घर की ढहती दीवारों से लगकर
खड़ी मैं सोचती हूँ
क्या मुझे अपनी लड़ाई लड़े बिना
हार मान लेनी चाहिए?
अपनी इच्छाओं
अपने सपनों की पहरेदारी पर
कोई सवाल नहीं करना चाहिए?
माँ! मैं जानना चाहती हूँ तुमसे
इस आँगन के उस पार
वह जो एक बहुत बड़ी दुनिया है
जीवन के समानान्तर
क्या उसे देखने का मुझे कोई हक नहीं?
मुझे बताओ माँ क्यों चढ़ी है आज भी
इस घर की ड्योढ़ी पर
इतनी मजबूत सॉकल
जिसे हिलाते हुए
कटी डाल की तरह झूल जाती हैं मेरी बाँहें
थक जाता है मेरा हौसला
माँ मैं तुम्हारी तरह
किसी जर्जर हवेली की बदरंग दीवारों पर
लतरबेल बनकर नहीं पसरना चाहती
मैं पीपल बरगद आम कटहल की तरह
पूरा का पूरा एक पेड़ बनना चाहती हूँ
इच्छाधारी अस्तित्वधारी एक पेड़
तुम देख रही हो किस तरह
ठूँठ हो गये हैं आज
पुरखों के लगाये सब पेड़
कब तक इनकी सूखी जड़ों में पानी देती तुम
अपने लगाये पेड़ों को
निपात होते देखती रहोगी
बोलो माँ बोलो ?
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=पूनम सिंह
|संग्रह= }}
<poem>
गहरी थकान और हताशा लिये
लौट आये हैं पिता
झुके कंधे गर्द भरे चेहरे पर
आहत उम्मीदों की लहूलुहान खरोंचे
आँखों के कोये में
समुद्री नमक का भहराता टीला
होठों पर मुर्दा चुप्पी लिये
सपनों की शव यात्रा से
राख की गंध में लिथड़े
पिता के चेहरे की ओर कैसी कातर
कितनी असहाय आँखों से देखती है माँ
किस अतल से निकला है
यह निःश्वास...
जिसमें मौत सी ठंडक है
ओ माँ! मैं कहाँ जाऊँ
किस पाताल कुँए में डूब मरूँ-बोलो?
क्यों नहीं आती मुझे मौत
जब बेमौत मरते हैं इतने लोग
आता है भूचाल
दरक जाती है धरती
औंधा गिर जाता है आसमान
नमक पानी के पारावार में
तिनके सी बह जाती है जिन्दगी
तब ऐसा कोई सूनामी
मुझे क्यों नहीं बहा ले जाता माँ
क्यों? क्यों?
मैं हरगिज नहीं चाहती पिता की साँस में
फाँस बनकर जीना
तुम्हारी छाती पर अडिग पहाड़ बनकर रहना
भाभी की आँखों में शूल की तरह चुभना
भाई की अनकही पीड़ा में
पतझड़ के उदास रंग की तरह दिखना
लेकिन मैं क्या करूँ माँ
मेरे बस में नहीं है
यह सब न होना
कभी कभी
इस घर की ढहती दीवारों से लगकर
खड़ी मैं सोचती हूँ
क्या मुझे अपनी लड़ाई लड़े बिना
हार मान लेनी चाहिए?
अपनी इच्छाओं
अपने सपनों की पहरेदारी पर
कोई सवाल नहीं करना चाहिए?
माँ! मैं जानना चाहती हूँ तुमसे
इस आँगन के उस पार
वह जो एक बहुत बड़ी दुनिया है
जीवन के समानान्तर
क्या उसे देखने का मुझे कोई हक नहीं?
मुझे बताओ माँ क्यों चढ़ी है आज भी
इस घर की ड्योढ़ी पर
इतनी मजबूत सॉकल
जिसे हिलाते हुए
कटी डाल की तरह झूल जाती हैं मेरी बाँहें
थक जाता है मेरा हौसला
माँ मैं तुम्हारी तरह
किसी जर्जर हवेली की बदरंग दीवारों पर
लतरबेल बनकर नहीं पसरना चाहती
मैं पीपल बरगद आम कटहल की तरह
पूरा का पूरा एक पेड़ बनना चाहती हूँ
इच्छाधारी अस्तित्वधारी एक पेड़
तुम देख रही हो किस तरह
ठूँठ हो गये हैं आज
पुरखों के लगाये सब पेड़
कब तक इनकी सूखी जड़ों में पानी देती तुम
अपने लगाये पेड़ों को
निपात होते देखती रहोगी
बोलो माँ बोलो ?
</poem>