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लौफारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है"मेरे ख़त जला दीजे ! मुझको फ़िक्र रहती है !आप उन्हें गँवा दीजे !आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !" मैं भी कुछ कहूँ तुमसे, फारेहा निगारिनाए बनाजुकी मीना इत्र बेज नसरीनारश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !लौह-ए-दिल जला दूँ दूं क्या?कहकशाँ जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों कीकहकशां लुटा दू दूँ क्या ?जो भी हर्फ़ है सवाल इतना ही इनका, नक्श-ए-जान है जनानांनक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी मुद्दा नुक्ता है मैं उसे गवाँ दू गंवा दूँ क्या ?जो भी हर्फ है इनका नक्शलौह-ए-जाँ ए जाना ना दिल जला दूँ क्या ?नक्श-ए-जाँ जान मिटा दूँ क्या?मुझ को मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख़्वाब-ख़्वाब जज़्बों ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों केख़्वाब-ख़्वाब ख्वाब ख्वाब लम्हों में यूँ ही बेख़याल आना बेख्यालाना जुर्म कर गयी हो तुमऔर ख़याल ख्याल आने पर मुझ उस से डर गई गयी हो तुम जुर्म के तस्सवुर तसव्वुर में गर ये ख़त लिखे तुमने फिर तो मेरी राय में जुर्म ही किये तुमने जुर्म क्यों क्यूँ किये जाएँ जुर्म हो तो ?ख़त ही क्यों क्यूँ लिखे जाएँ ?
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