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माँ उठती है - मुंह अंधेरे
 
इस घर की तब -
'सुबह' उठती है
 
माँ जब कभी थकती है
 
इस घर की
 
शाम ढलती है
 
पीस कर खुद को
 
हाथ की चक्की में
 
आटा बटोरती
 
हँस-हँस कर - माँ
 
हमने देखा है
 
जोर जोर से चलाती है मथानी
 
खुद को मथती है - माँ
 
और
 
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
 
सवालों को सुलझा लेती है
 
माखन की तरह
 
उतार लेती है - घर भर के लिए
 
माँ - मरने के बाद भी
 
कभी नहीं मरती है
 
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
 
पूजा की थाली का घी
 
कभी वह
 
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
 
घर के आँगन में
 
हर सुबह
 
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
 
माँ कभी नहीं मरती है।
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