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Kavita Kosh से
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उठता-गिरता-मुड़ता जाए
कभी पेट की चोटों को
अंदर-अंदर कुढ़ता जाए
कभी फ़सादों में उलझा
तकली बनकर नाचेनचा टूटे-फूटे शीशों शीशे मेंअपने चेहरे बाँचेअपना चेहरा बांचा
घटनाओं से जुड़ता जाए
कभी कोयले-सा जलता
हल चलने पर गुड़ता जाए
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