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Kavita Kosh से
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढकाते हैं गिलसियां गिलसियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
इक पथरायी पथराई सी मुस्कान लियेलिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआं धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर