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है आहार, विहार, वैभव कहीं; संहार होता कहीं।
है अत्यन्त अकल्पनीय भव की क्रीड़ामयी कल्पना॥7॥
 
(2)
दिव्य दशमूर्ति
 
गीत
 
जय-जय जयति लोक-ललाम,
सकल मंगल-धाम।
 
भरत भू को देख अभिनव भाव से अभिभूत।
राममोहन रूप धर भ्रम-निधन-रत अविराम॥1॥
विविध नवल विचार-विचलित युवक-दल अवलोक।
रामकृष्ण स्वरूप में अवतरित बन विश्राम॥2॥
 
विपुल आकुल बाल-विधवा बहु विलाप विलोक।
विदित ईश्वरचन्द्र वपु धर स्ववश-कृत विधि वाम॥3॥
 
वेद-विहित प्रथित सनातन-पंथ मथित विचार।
दयानन्द शरीर धर शासन-निरत वसु याम॥4॥
 
पतन-प्राय समाज-शोधन की बताई नीति।
विहर रानाडे-हृदय में विदित कर परिणाम॥5॥
 
एक सत्ता मंत्र से दी धर्म्म को ध्रुव शक्ति।
रामतीर्थ स्वरूप धर उर-हार कर हरि-नाम॥6॥
 
दलित वंचित व्यथित महि में की अचिन्तित क्रान्ति।
बाल-गंगाधर तिलक बनकर अलौकिक काम॥7॥
 
राजनीति-विधन की विधि-हीनता की हीन।
गोखले गौरवित तन धर विरच सित मति श्याम॥8॥
 
तिमिर-पूरित भरत-भू में ज्योति भर दी भूरि।
मदनमोहन मूर्ति धर बनकर भुवन-अभिराम॥9॥
 
विविध बाधा मुक्ति-पथ की शमन की रह शान्त।
मंजु मोहन-चन्द में रम कर विहित संग्राम॥10॥
 
मातृ-महि-हित-रत क हर हृदय कुत्सित भाव।
द्रवित उर 'हरिऔध' गुंफित दिव्य जन गुणग्राम॥11॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
नाना कार्य-विधायिनी निपुणता नीतिज्ञता विज्ञता।
न्यारी जाति-हितैषिता सबलता निर्भीकता दक्षता।
 
सच्ची सज्जनता स्वधर्म-मतिता स्वच्छन्दता सत्यता।
दिव्यों की दर्शमूर्ति देश-जन को देती रहे दिव्यता॥12॥
(3)
कामना
 
गीत
 
विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर।
आलोकित हो लोक अधिकतर
हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥
 
विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।
पाये तेज दलित हो तामस।
मंजुल-तम ज्ञान-प्रदीप हृदय-तल में बले॥2॥
 
हो सजीवता सर्व जनों में संचित।
क न कोमल प्रकृति प्रवंचित।
भावे भावुकता भूति भाव होवें भले॥3॥
 
कर न सके भयभीत किसी को भावी।
साहस बने सुधारस-स्रावी।
दिखलावे सबल समोद दुखित दल दुख दले॥4॥
 
मद-रज से हों मानस-मुकुर न मैले।
बंधु-भाव वसुधा में फैले।
मानवता का कर दलन न दानवता खले॥5॥
 
मर्म हृदय का हृदयवान् जन जाने।
ममता पर ममता पहचाने।
बन धर्म धुरंधर लोक-कर्म-पथ पर चले॥6॥
 
जगा जीवनी-ज्योति जातियाँ जागें।
अनुरंजन-रत हो अनुरागें।
भव-हित-पलने में देश-प्रेम प्रिय शिशु पले॥7॥
 
विपुल विनोदित बने सुखित हो पावे।
सुर-वांछित वैभव अपनावे।
पहुँचे पुनीत तम सुजन देव-पादप-तले॥8॥
 
द्रवित मोम सम पवि मानस हो जावे।
कूटनीति तृण-राशि जलावे।
होवे हित-पावक प्रखर प्रेम-पंखा झले॥9॥
 
छिले न कोई उर न क्षोभ छू जावे।
शान्ति-छटा छिटकी दिखलावे।
छल करके कोई छली न क्षिति-तल को छले॥10॥
 
सब विभेद तज भेद-साधना जाने।
महामंत्र भव-हित को माने।
अभिमत फल पाकर साधक जन फूले-फले॥11॥
 
शिखरिणी
 
दिवा-स्वामी होवे रुचिर रुचिकारी दिवस हो।
दिशाएँ दिव्या हों सरस सुखदायी समय हो।
मयंकाभा होवे सित-तम महा मंजु रजनी।
सुधा की धारा से धुल-धुल धरा हो धवलिता॥12॥
 
भले भावों से हो भरित भव भावी सबलता।
स्वभावों को भावें भुवन-भयहारी सदयता।
सदाचारों द्वारा सफलित बने चित्त-शुचिता।
सुधारों में होवे सुरसरि-सुधा-सी सरसता॥13॥
(4)
उमंग-भ युवक
 
गीत
हैं भूतल-परिचालक प्रतिपालक ए।
तोयधि-तुंग-तरंग युवक-उमंग-भरे॥1॥
 
हैं भव-जन-भय भंजन मन-रंजन ए।
बंधन-मोचन-हेतु अवनि में अवतरे॥2॥
 
हैं अनुपम यश-अंकित अकलंकित ए।
लोक अलौकिक लाल मराल विरद वरे॥3॥
 
हैं दानव-दल-दण्डन खल-खंडन ए।
अरि-कुल-कंठ-कुठार अकुंठित व्रत धरे॥4॥
 
हैं नर-पुंगव नागर सुखसागर ए।
मनुज-वंश-अवतंस सरस रुचि सिर-धरे॥5॥
 
हैं जनता-संजीवन जग-जीवन ए।
पीड़ित-जन-परिताप-तप्त पथ पौसरे॥6॥
 
हैं समाज-सुख-साधक दुख-बाधक ए।
देश-प्रेम-प्रासाद प्रभावित फरहरे ॥7॥
 
हैं नवयुग-अधि प्रिय पायक ए।
वसुधा-विजयी वीर विजय-प्रद पैंतरे॥8॥
 
हैं सुविचार-प्रचारक परिचारक ए।
सब सुधार-आधार-धरा-पादक हरे॥9॥
 
हैं पविता-परिचायक शित शायक ए।
सब पदार्थ-सर्वस्व स्वार्थ-परता परे॥10॥
वंशस्थ
सदैव होवें समयानुगामिनी।
प्रसादिनी मानवतावलम्बिनी।
गरीयसी, गौरविता, महीयसी।
यवीयसी हो युवक-प्रवृत्तियाँ॥11॥
 
प्रफुल्ल हों, पीवर हो, प्रवीर हों।
प्रवीण हों, पावन हो, प्रबुध्द हों।
विनीत हों, वत्सलता-विभूति हों।
वसुंधरा-वैभव बाल-वृन्द हों॥12॥
 
वसंत-तिलका
 
भूलोक-भूति भवसिध्दि-मयी मनोज्ञा।
सारी धरा-विजयिनी कल-कीत्ति कान्ता।
सम्पत्तिदा जन-विपत्ति-विनाश-मूर्ति।
होवे पुनीत प्रतिपत्ति युवा जनों की॥13॥
 
धीरा प्रशान्त अति कान्त नितान्त दिव्या।
हिंसा-विहीन सरसा भव-वांछनीया।
संसार-शान्ति अवनी नवनी समाना।
हो पूत-भाव-जननी जनताभिलाषा॥14॥
 
हो उक्ति मंजु अनुरक्ति प्रवृत्ति पूत।
आसक्ति उच्च भव-भक्ति-विरक्ति-हीन।
बाधामयी विषमता क्षमता-विनाशी।
हो सिध्द-भूत समता ममता युवा की॥15॥
 
भूले न लोक-हित मंत्र-मदांध हो के।
पी के प्रसाद-मदिरा न बने प्रमादी।
पाके महान पद मानवता न खोवे।
होवे न मत्त बहु मान मिले मनस्वी॥16॥
 
दे दे विभा विहित नीति विभावरी को।
पाले कुमोदक-समान प्रजाजनों को।
सींचे सुधा बरस के अरसा रसा को।
सच्चा सुधाधर बने वसुधाधिकारी॥17॥
(5)
भारत-भूतल
 
शिखरिणी
 
सिता-सी साधें हो सुकथन सुधा से मधुर हो।
अछूते भावों से भर-भर बने भव्य प्रतिभा।
रसों से सिक्ता हो पुलकित क सूक्ति सबको।
विचारों की धारा सरस सरि-धारा-सदृश हो॥1॥
गीत
जय भव-वंदित भारत-भूतल।
शिर पर शोभित कलित क्रीट सम विलसित अचल हिमाचल॥1॥
 
कंठ-लग्न मुक्ता-माला-इव मंजुल सुर-सरि-धारा।
होता है विधौत पग पावन पूत पयोनिधि द्वारा॥2॥
 
मणि-गण-मंडित कान्त कलेवर तरु कोमल दल श्यामल।
सुधा-भरित नाना फल-संकुल सफलीकृत वसुधातल॥3॥
 
मधु-विकास-विकसित बहु सरसित शरद सितासित सुन्दर।
सुरभित मलय-समीर-सुसेवित सुखनिधि मंजुल मंदर॥4॥
 
नव-नव उषा-राग-आरंजित मन-रंजन घन-माली।
राका रजनी आयोजन रत लोकोत्तर छविशाली॥5॥
 
रुचिर पुरन्दर-चाप-विभूषित तारक-माला-सज्जित।
रविकर-निकर-कलित-आलोकित चन्द्र-चारुता-मज्जित॥6॥
 
नंदन-वन-समान उपवन-मय चन्दन-तरु-चयधारी।
लोक ललित लतिका कर-लालित ललामता अधिकारी॥7॥
 
खग-कुल-कलरव-कान्त कोकिला-आकुल-नाद-अलंकृत।
मुग्धकरी कुसुमावलि-पूरित अलि-झंकार-सुझंकृत॥8॥
 
मनभावन महान महिमामय पावन पद-परिचायक।
सुरपुर-सम सम्पन्न दिव्य-तम सप्तपुरी-अधिनायक॥9॥
 
सकल अमंगल-मूल-निकंदन भव-जन-मंगलकारी।
प्रेम-निलय 'हरिऔध' मधुर-तम मानस-सदन-विहारी॥10॥
 
द्रुतविलम्बित
 
वृषभ-वाहन है शशि-मौलि है।
वर-विभूति-विराजित गात है।
सुर-तरंगिणि है शिर-मालिका।
भरत-भूतल ही भव-मूर्ति है॥11॥
 
सतत है अवनीतल-रंजिनी।
कमल-लोचन की कमनीयता।
भुवन-मोहन है तन-श्यामता।
भरत-भूमि रमापति-मूर्ति है॥12॥
 
मलिन लोचन की मल-मूलता।
विविध मायिकता मनुजात की।
हरण है करती मद-अंधता।
भरत-भूतल-श्याम-स्वरूपता॥13॥
 
वसंत-तिलका
 
है हंसवाहन चतुर्मुख चारु-मूर्ति।
है वेद-वैभव-विकासक बुध्दि-दाता।
सत्कर्म-धाम कमलासनताधिकारी।
नाना विधन-रत भारत है विधाता॥14॥
वंशस्थ
रमा समा है रमणीयता मिले।
उमा समा है वन-सिंह-वाहना।
गिरा समा है प्रतिभा-विभूषिता।
विचित्र है भारत की वसुंधरा॥15॥
(6)
भारतीय महत्ता
 
शार्दूल-विक्रीडित
है आराधक सर्वभूत-हित का आधार सद्वृत्तिका।
व्याख्याता भव-मुक्ति-भुक्ति-पथ का त्राता सदासक्ति का।
पाता है जन पूत भाव निधिक का दाता महामंत्र का।
ज्ञाता भारत है समस्त मत का धाता धराधर्म का॥1॥
गीत
 
भारत है भव-विभव-विधाता।
उसका गौरव-गीत प्रगति पा वसुधा-तल है गाता॥1॥
 
किसके पलने में पल पहले हुई प्रकृति-कृति पुलकित।
किसका ललित विकास विलोके हुई लोक-रुचि ललकित॥2॥
 
मानस-तम तमारि बन पाया किसका मुख आलोकित।
पा किसका आलोक हो सका लोक-लोक आलोकित॥3॥
 
किसके प्रथम प्रभात में हुआ भूतल भूति-विभासित।
किसने बन सित भानु-सिता से की समस्त वसुधा सित॥4॥
 
किसके आदिम तम उपवन में वह कुसुमाकर आया।
जिसने भू को कुसुमित, सुरभित, सफलित, सरस बनाया॥5॥
 
हुआ कहाँ पर साम-गान वह जिसने सुधा बहाई।
जिसकी स्वर-लहरी सुरपुर में लहराती दिखलाई॥6॥
 
बजी कहाँ वह मंजुल वीणा जो जगती में गूँजी।
जिसकी व्यंजक ध्वनि बन पाई धरा-धर्म की पूँजी॥7॥
 
किसकी कुंजों में मुरली का वह मृदु नाद सुनाया।
जिसने जगत-विजित जीवों पर जीवन-रस बरसाया॥8॥
 
कौन है हृदय-तिमिर-विमोचन अंधा-विलोचन-अंजन।
सुख-सुमेरु का शिखर मनोहर, जन-मानस-अनुरंजन॥9॥
 
सिध्दि सकल का सुन्दर साधन, विमल विभूति-सहारा।
भारत है 'हरिऔध' ज्ञान-नभ-तल-उज्ज्वलतम तारा॥10॥
 
वसन्त-तिलका
आलोक-दान-रत भारत है प्रभात।
संसार-मानसर-जात प्रफुल्ल पद्म । है मंजु-भाव-गगनांगण का मंयक
आनन्द-मंदिर-मनोज्ञ-मणि-प्रदीप॥11॥
शार्दूल-विक्रीडित
माता है मृदु भाव की, मनुजता की है महा साधना।
पाता है भव-शान्ति की सरलता की सिध्दि-भूता सुधा।
है आधार विभूति की, सुहृदता-राका-निशा-चंद्रिका।
सद्भावामृत सिंचिता श्रुति-रता है भारती सभ्यता॥12॥
 
छाया था जब अंधकार भव में, संसार था सुप्त सा।
ज्ञानालोक-विहीन ओक सब था, विज्ञान था गर्भ में।
 
ऐसे अद्भुत काल में प्रथम ही जो ज्योति उद्भूत हो।
ज्योतिर्मान बना सकी जगत को है वेद-विद्या वही॥13॥
 
नाना देश अनेक पंथ मत में है धर्म-धारा बही।
फैली है समयानुसार जितनी सद्वृत्तिक संसार में।
देखे वे बहु पूत भाव जिनसे भू में भरी भव्यता।
सोचा तो सब सार्वभौम हित के सर्वस्व हैं वेद ही॥14॥
 
मूसा की वह दिव्य ज्योति जिसमें है दिव्यता सत्य की।
सच्चिन्ता जरदस्त की सदयता उद्बुध्दता बुध्द की।
ईसा की महती महानुभवता पैगम्बरी विज्ञता।
पाती है विभुता-विभूति जिससे है वेद-सत्ता वही॥15॥
 
नाना धर्म-विधन के विलसते उद्यान देखे गये।
फूले थे जितने प्रसून उनमें स्वर्गीय सद्भाव के।
फैली थी जितनी सुनीति-लतिका, थे बोध-पौधे लसे।
जाँचा तो श्रुतिसार-सूक्ति-रस से थे सिक्त होते सभी॥16॥
 
देख ग्रंथ समस्त पंथ मत के, सिध्दान्त-बातें सुनीं।
नाना वाद-विवाद-पुस्तक पढ़ी, संवाद वादी बने।
जाँची तर्क-वितर्क-नीति-शुचिता, त्यागा कुतर्कादि को।
तो जाना सर्वज्ञता जगत की है वेद-भेदज्ञता॥17॥
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