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<poem>सँभलकर राह में चलना वही पत्थर सिखाता है
हमारे पाँव के आगे जो ठोकर बनके आता है

नहीं दीवार के ज़ख़्मों का कुछ अहसास इन्साँ को
जो कीलें गाड़ने के बाद तसवीरें लगाता है

मैं जैसे वाचनालय में रखा अख़बार हूँ कोई
जो पढ़ता है वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है

मुसव्विर प्यास की हद से गुज़रता है कोई जब भी
तभी तस्वीर काग़ज़ पर समंदर की बनाता है

ये सच है सीढि़याँ शोहरत की चढ़ जाने के बाद इन्साँ
सहारा देने वाले ही को अक्सर भूल जाता है

न ऐसे शख़्स को चौखट से ख़ाली हाथ लौटाओ
जो इक रोटी के बदले सौ दुआएँ दे के जाता है

बहुत मुश्किल है ‘नाज़’ अहसान का बदला चुका पाना
दिये को ख़ुद धुआँ उसका अकेला छोड़ जाता है</poem>