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समर्पण / निशांत मिश्रा

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पथ से भटका, मन से भटका,
फिर से संभला, अब राह वही पाने को,
जिस राह चले थे साथ कभी,
अब साथ वही पाने को,
उस मृगतृष्णा के चक्रव्यूह से,
बाहर निकलकर जाना,
अपना होता है दिल से अपना,
गैर रहे बेगाना,
जतन किये लाखों ही मैंने,
तुम सा कोई पाऊं,
नहीं मिला कोई भी अब तक,
अब तुम जैसा बन जाऊं,
चाह यही बनके तुम जैसा,
जीवन भर साथ निभाऊं,
तेरे पथ के काँटों को भी,
अब मैं फूल बनाता जाऊं,
मत रखना अब भ्रम को दिल में,
अब साथ कभी न छूटे,
जिस राह चले थे साथ कभी,
वो राह कभी न छूटे.... </poem>
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