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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>हमारे संस्कार - वट वृक्ष यानि बरगद का पेड़<br />यूँही नहीं बने हमारे संस्कार<br />कुछ न कुछ तो है<br />हर रीति रिवाज के पीछे<br />ज़रूरत है<br />उन्हें समझने की<br /><br />वट वृक्ष का<br />हमारे रीति रिवाजों में<br />काफ़ी अहम स्थान है<br />यदि हम समझें<br />और समझ कर मानने को<br />उद्यत हों - तो<br /><br />वट वृक्ष<br />यानि<br />बरगद का पेड़<br />इसलिए अहम नहीं<br />कि उस में<br />ब्रह्मा-विष्णु-महेश निवास करते हैं<br /><br />बल्कि इसलिए<br />कि ये प्रतीक है<br />दीर्घायु का<br /><br />ये सुंदर उदाहरण है<br />वसुधैव कुटुम्बकम का<br /><br />ये सहारा है<br />हर आते जाते पथिक का<br />बिना किसी भी तरह के भेदभाव के<br /><br />बरगद का पेड़<br />देखता रहता है<br />पीढ़ियों को<br />बच्चे से जवान<br />और फिर बूढ़ा होते हुए<br />और एक दिन<br />उन्हें अपने असली गंतव्य तक जाते हुए भी<br /><br />हर बरगद<br />एक एनसइक्लॉपीडिया है<br />बदलते युगों का<br /><br />ज़रूरत है हमें<br />जानकारियाँ<br />उस से अर्जित करने की<br /><br />बरगद<br />बदलते समय के साथ साथ<br />कम हरा हुआ है<br /><br />बदलते सरोकारों के साथ<br />बदला है<br />उसका पता ठिकाना<br /><br />बदलते मूल्यों के साथ<br />घटी हैं उस की जटायें भी<br /><br />और छोटा हुआ है<br />उस का परिवार भी<br /><br />बरगद<br />दर्ज हो रहा है<br />डाक्टरेट्स में<br />और हट रहा है<br />जन जीवन से<br /><br />बरगद<br />दूर हो कर हमारी पहुँच से<br />पहुँचने लगा है<br />सील पेक गत्ते के छोटे बड़े बक्सों में<br /><br />यूँही तो नहीं बनाया गया होगा<br />बरगद को<br />पूज्य<br />वट सावित्री के व्रत से जोड़कर<br />कुछ तो रहे होंगे कारण<br />कुछ तो रहे होंगे प्रयोजन<br /><br />पर सच कहूँ तो मैं भी तो<br />बस अनुमान ही लगा रहा हूँ ना<br />काश दादी / नानी से पूछ पाता ये<br />बनिस्बत पुस्तकों में पढ़ने के<br />तो कहीं अच्छी तरह समझ पाता<br />इस के औचित्य को<br /><br />हाँ<br />ये सच है<br />औचित्य अब हमें<br />पुस्तकों से नहीं<br />अपने<br />सामान्य ज्ञान से<br />खोज निकालने की आवश्यकता है...............<br /><poem>{{KKCatKavita}}</poem>