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कबीर दोहावली / पृष्ठ १

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New page: दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । <BR/> जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को...
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । <BR/>
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को होय ॥ 1 ॥ <BR/><BR/>

तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय । <BR/>
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥ <BR/><BR/>

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । <BR/>
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ <BR/><BR/>

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । <BR/>
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ <BR/><BR/>

बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । <BR/>
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख । <BR/>
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ <BR/><BR/>

सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । <BR/>
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ <BR/><BR/>

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । <BR/>
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ <BR/><BR/>

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । <BR/>
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ <BR/><BR/>

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । <BR/>
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ <BR/><BR/>

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । <BR/>
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ <BR/><BR/>

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । <BR/>
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ <BR/><BR/>

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । <BR/>
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ <BR/><BR/>

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । <BR/>
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ <BR/><BR/>

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । <BR/>
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ <BR/><BR/>

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । <BR/>
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ <BR/><BR/>

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ <BR/><BR/>

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । <BR/>
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ <BR/><BR/>

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । <BR/>
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ <BR/><BR/>

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । <BR/>
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥ <BR/><BR/>
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ <BR/><BR/>

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । <BR/>
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ <BR/><BR/>

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । <BR/>
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ <BR/><BR/>

जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । <BR/>
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ <BR/><BR/>

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/>
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ <BR/><BR/>

आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । <BR/>
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ <BR/><BR/>

क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । <BR/>
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ <BR/><BR/>

गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । <BR/>
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ <BR/><BR/>

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । <BR/>
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ <BR/><BR/>

दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । <BR/>
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ <BR/><BR/>

दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन । <BR/>
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ <BR/><BR/>

ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । <BR/>
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ <BR/><BR/>

हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । <BR/>
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ <BR/><BR/>

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । <BR/>
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ <BR/><BR/>

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । <BR/>
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ <BR/><BR/>

मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । <BR/>
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ <BR/><BR/>

सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । <BR/>
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ <BR/><BR/>

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । <BR/>
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ <BR/><BR/>

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । <BR/>
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ <BR/><BR/>

अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । <BR/>
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । <BR/>
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ <BR/><BR/>

पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । <BR/>
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ <BR/><BR/>
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । <BR/>
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ <BR/><BR/>

हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । <BR/>
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ <BR/><BR/>

राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । <BR/>
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ <BR/><BR/>

जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । <BR/>
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ <BR/><BR/>

तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । <BR/>
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ <BR/><BR/>

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । <BR/>
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ <BR/><BR/>

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । <BR/>
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥

हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । <BR/>
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ <BR/><BR/>

कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । <BR/>
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ <BR/><BR/>

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । <BR/>
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ <BR/><BR/>

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । <BR/>
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ <BR/><BR/>

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । <BR/>
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ <BR/><BR/>

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । <BR/>
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ <BR/><BR/>

साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय । <BR/>
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ <BR/><BR/>

लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । <BR/>
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । <BR/>
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ <BR/><BR/>

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । <BR/>
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ <BR/><BR/>

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । <BR/>
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ <BR/><BR/>

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । <BR/>
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ <BR/><BR/>

प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । <BR/>
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ <BR/><BR/>

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । <BR/>
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ <BR/><BR/>

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । <BR/>
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ <BR/><BR/>

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । <BR/>
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ <BR/><BR/>

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । <BR/>
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ <BR/><BR/>

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । <BR/>
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ <BR/><BR/>

जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । <BR/>
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ <BR/><BR/>

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । <BR/>
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ <BR/><BR/>

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । <BR/>
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ <BR/><BR/>

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । <BR/>
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ <BR/><BR/>

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । <BR/>
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ <BR/><BR/>

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । <BR/>
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ <BR/><BR/>

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । <BR/>
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ <BR/><BR/>

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । <BR/>
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ <BR/><BR/>

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । <BR/>
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ <BR/><BR/>

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । <BR/>
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ <BR/><BR/>

दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । <BR/>
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ <BR/><BR/>

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । <BR/>
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ <BR/><BR/>

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । <BR/>
प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥ <BR/><BR/>

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । <BR/>
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ <BR/><BR/>

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । <BR/>
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । <BR/>
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ <BR/><BR/>

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । <BR/>
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ <BR/><BR/>

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । <BR/>
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ <BR/><BR/>

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । <BR/>
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ <BR/><BR/>
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । <BR/>
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ <BR/><BR/>

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश । <BR/>
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ <BR/><BR/>

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । <BR/>
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥ <BR/><BR/>

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । <BR/>
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ <BR/><BR/>

बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम । <BR/>
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ <BR/><BR/>

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । <BR/>
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ <BR/><BR/>

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास । <BR/>
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥ <BR/><BR/>

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव । <BR/>
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥ <BR/><BR/>

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । <BR/>
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ <BR/><BR/>

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । <BR/>
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ <BR/><BR/>

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । <BR/>
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ <BR/><BR/>
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । <BR/>
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥ <BR/><BR/>
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