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|रचनाकार=मनु भारद्वाज
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<Poem>
हम कहीं पहले मिले हों क्या कभी ऐसा हुआ
आपका चेहरा मुझे लगता है कुछ देखा हुआ

इसमें शायद दखल है किस्मत का मेरी दोस्तों
जिंदगी की राह में जब भी हुआ धोका हुआ

मैंने तो इन्सां बनाया ये ख़ुदा ही बन गया
सोचता होगा ख़ुदा भी अर्श पर बैठा हुआ

लड़खड़ाने पर हमारे लग गई पाबन्दियाँ
ज़िन्दगी के साथ कुछ इस तरह समझौता हुआ

है ज़माना-ए-तरक्क़ी या तरक्क़ी का ज़वाल
आदमी लगता है जैसे नींद में चलता हुआ

खुशबुएँ ही खुशबुएँ बिखरा गया है हर तरफ
कौन गुज़रा है यहाँ से ऐ 'मनु' हँसता हुआ </poem>
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