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फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥
 
तप से रीझ देवता बनता है वांछित फल का दाता।
अपराधी का भी हित करते तुमको है देखा जाता।
इसीलिए है क्षमा तुम्हारा नाम और तुम हो भारी।
धा! कहाँ तक कहें तुम्हारी क्षमाशीलता है न्यारी॥12॥
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