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निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । <BR/>
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ <BR/><BR/>
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । <BR/>
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ <BR/><BR/>
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । <BR/>
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ <BR/><BR/>
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । <BR/>
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ <BR/><BR/>
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । <BR/>
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ <BR/><BR/>
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ <BR/><BR/>
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । <BR/>
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ <BR/><BR/>
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । <BR/>
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ <BR/><BR/>
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । <BR/>
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ <BR/><BR/>
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । <BR/>
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ <BR/><BR/>
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । <BR/>
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ <BR/><BR/>
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । <BR/>
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ <BR/><BR/>
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । <BR/>
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ <BR/><BR/>
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । <BR/>
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ <BR/><BR/>
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । <BR/>
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ <BR/><BR/>
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । <BR/>
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ <BR/><BR/>
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । <BR/>
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ <BR/><BR/>
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । <BR/>
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ <BR/><BR/>
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । <BR/>
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । <BR/>
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ <BR/><BR/>
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । <BR/>
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ <BR/><BR/>
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । <BR/>
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ <BR/><BR/>
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । <BR/>
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ <BR/><BR/>
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । <BR/>
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ <BR/><BR/>
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । <BR/>
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ <BR/><BR/>
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । <BR/>
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ <BR/><BR/>
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । <BR/>
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ <BR/><BR/>
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । <BR/>
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ <BR/><BR/>
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । <BR/>
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ <BR/><BR/>
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । <BR/>
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ <BR/><BR/>
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । <BR/>
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ <BR/><BR/>
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । <BR/>
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ <BR/><BR/>
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । <BR/>
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ <BR/><BR/>
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । <BR/>
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । <BR/>
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ <BR/><BR/>
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । <BR/>
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ <BR/><BR/>
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । <BR/>
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ <BR/><BR/>
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । <BR/>
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ <BR/><BR/>
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । <BR/>
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ <BR/><BR/>
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । <BR/>
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ <BR/><BR/>
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । <BR/>
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ <BR/><BR/>
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । <BR/>
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ <BR/><BR/>
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । <BR/>
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ <BR/><BR/>
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । <BR/>
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ <BR/><BR/>
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । <BR/>
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ <BR/><BR/>
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । <BR/>
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ <BR/><BR/>
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । <BR/>
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ <BR/><BR/>
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । <BR/>
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ <BR/><BR/>
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । <BR/>
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ <BR/><BR/>
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । <BR/>
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ <BR/><BR/>
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । <BR/>
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ <BR/><BR/>
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । <BR/>
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ <BR/><BR/>
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । <BR/>
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ <BR/><BR/>
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । <BR/>
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ <BR/><BR/>
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । <BR/>
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ <BR/><BR/>
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । <BR/>
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ <BR/><BR/>
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । <BR/>
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ <BR/><BR/>
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । <BR/>
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ <BR/><BR/>
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । <BR/>
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ <BR/><BR/>
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । <BR/>
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । <BR/>
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ <BR/><BR/>
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । <BR/>
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ <BR/><BR/>
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । <BR/>
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । <BR/>
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । <BR/>
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ <BR/><BR/>
॥ संगति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । <BR/>
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ <BR/><BR/>
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । <BR/>
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । <BR/>
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ <BR/><BR/>
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ <BR/><BR/>
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । <BR/>
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ <BR/><BR/>
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । <BR/>
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ <BR/><BR/>
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । <BR/>
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ <BR/><BR/>
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । <BR/>
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ <BR/><BR/>
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । <BR/>
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ <BR/><BR/>
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । <BR/>
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ <BR/><BR/>
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । <BR/>
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ <BR/><BR/>
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । <BR/>
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ <BR/><BR/>
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । <BR/>
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ <BR/><BR/>
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । <BR/>
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । <BR/>
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । <BR/>
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ <BR/><BR/>
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । <BR/>
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ <BR/><BR/>
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । <BR/>
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ <BR/><BR/>
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । <BR/>
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ <BR/><BR/>
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । <BR/>
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ <BR/><BR/>
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । <BR/>
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ <BR/><BR/>
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । <BR/>
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ <BR/><BR/>
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । <BR/>
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ <BR/><BR/>
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । <BR/>
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ <BR/><BR/>
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । <BR/>
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ <BR/><BR/>
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । <BR/>
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ <BR/><BR/>
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । <BR/>
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ <BR/><BR/>
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । <BR/>
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ <BR/><BR/>
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । <BR/>
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ <BR/><BR/>
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । <BR/>
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ <BR/><BR/>
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । <BR/>
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ <BR/><BR/>
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । <BR/>
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ <BR/><BR/>
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । <BR/>
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ <BR/><BR/>
॥ सेवक पर दोहे ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । <BR/>
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ <BR/><BR/>
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । <BR/>
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ <BR/><BR/>
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ <BR/><BR/>
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । <BR/>
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ <BR/><BR/>
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । <BR/>
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ <BR/><BR/>
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । <BR/>
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ <BR/><BR/>
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । <BR/>
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ <BR/><BR/>
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ <BR/><BR/>
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । <BR/>
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ <BR/><BR/>
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । <BR/>
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ <BR/><BR/>
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । <BR/>
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ <BR/><BR/>
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । <BR/>
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ <BR/><BR/>
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । <BR/>
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ <BR/><BR/>
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । <BR/>
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ <BR/><BR/>
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । <BR/>
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ <BR/><BR/>
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । <BR/>
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ <BR/><BR/>
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । <BR/>
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ <BR/><BR/>
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । <BR/>
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ <BR/><BR/>
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । <BR/>
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ <BR/><BR/>
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । <BR/>
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ <BR/><BR/>
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । <BR/>
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । <BR/>
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ <BR/><BR/>
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । <BR/>
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ <BR/><BR/>
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । <BR/>
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ <BR/><BR/>
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । <BR/>
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ <BR/><BR/>
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । <BR/>
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ <BR/><BR/>
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । <BR/>
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ <BR/><BR/>
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । <BR/>
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ <BR/><BR/>
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । <BR/>
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ <BR/><BR/>
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । <BR/>
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ <BR/><BR/>
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । <BR/>
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ <BR/><BR/>
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । <BR/>
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ <BR/><BR/>
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । <BR/>
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ <BR/><BR/>
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । <BR/>
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ <BR/><BR/>
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । <BR/>
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ <BR/><BR/>
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । <BR/>
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ <BR/><BR/>
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । <BR/>
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ <BR/><BR/>
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । <BR/>
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ <BR/><BR/>
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । <BR/>
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ <BR/><BR/>
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । <BR/>
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ <BR/><BR/>
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । <BR/>
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ <BR/><BR/>
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । <BR/>
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ <BR/><BR/>
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । <BR/>
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ <BR/><BR/>
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । <BR/>
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ <BR/><BR/>
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । <BR/>
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ <BR/><BR/>
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । <BR/>
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ <BR/><BR/>
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । <BR/>
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ <BR/><BR/>
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । <BR/>
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ <BR/><BR/>
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । <BR/>
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ <BR/><BR/>
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । <BR/>
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ <BR/><BR/>
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । <BR/>
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ <BR/><BR/>
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । <BR/>
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ <BR/><BR/>
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । <BR/>
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ <BR/><BR/>
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । <BR/>
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ <BR/><BR/>
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । <BR/>
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ <BR/><BR/>
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । <BR/>
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ <BR/><BR/>
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । <BR/>
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ <BR/><BR/>
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । <BR/>
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ <BR/><BR/>
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । <BR/>
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ <BR/><BR/>
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । <BR/>
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ <BR/><BR/>
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । <BR/>
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ <BR/><BR/>
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । <BR/>
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । <BR/>
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ <BR/><BR/>
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । <BR/>
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ <BR/><BR/>
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । <BR/>
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । <BR/>
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । <BR/>
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ <BR/><BR/>
॥ संगति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । <BR/>
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ <BR/><BR/>
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । <BR/>
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । <BR/>
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ <BR/><BR/>
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ <BR/><BR/>
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । <BR/>
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ <BR/><BR/>
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । <BR/>
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ <BR/><BR/>
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । <BR/>
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ <BR/><BR/>
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । <BR/>
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ <BR/><BR/>
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । <BR/>
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ <BR/><BR/>
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । <BR/>
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ <BR/><BR/>
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । <BR/>
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ <BR/><BR/>
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । <BR/>
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ <BR/><BR/>
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । <BR/>
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ <BR/><BR/>
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । <BR/>
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । <BR/>
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । <BR/>
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ <BR/><BR/>
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । <BR/>
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ <BR/><BR/>
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । <BR/>
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ <BR/><BR/>
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । <BR/>
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ <BR/><BR/>
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । <BR/>
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ <BR/><BR/>
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । <BR/>
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ <BR/><BR/>
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । <BR/>
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ <BR/><BR/>
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । <BR/>
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ <BR/><BR/>
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । <BR/>
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ <BR/><BR/>
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । <BR/>
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ <BR/><BR/>
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । <BR/>
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ <BR/><BR/>
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । <BR/>
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ <BR/><BR/>
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । <BR/>
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ <BR/><BR/>
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । <BR/>
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ <BR/><BR/>
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । <BR/>
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ <BR/><BR/>
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । <BR/>
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ <BR/><BR/>
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । <BR/>
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ <BR/><BR/>
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । <BR/>
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ <BR/><BR/>
॥ सेवक पर दोहे ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । <BR/>
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ <BR/><BR/>
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । <BR/>
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ <BR/><BR/>
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