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कबीर दोहावली / पृष्ठ ८

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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । <BR/>
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ <BR/><BR/>

अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । <BR/>
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ <BR/><BR/>

यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । <BR/>
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ <BR/><BR/>

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । <BR/>
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ <BR/><BR/>

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । <BR/>
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ <BR/><BR/>

द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । <BR/>
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ <BR/><BR/>

उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । <BR/>
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ <BR/><BR/>

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । <BR/>
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ <BR/><BR/>

गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । <BR/>
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ <BR/><BR/>

गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । <BR/>
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ <BR/><BR/>

यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । <BR/>
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ <BR/><BR/>

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । <BR/>
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ <BR/><BR/>

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । <BR/>
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ <BR/><BR/>

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ <BR/><BR/>

॥ दासता पर दोहे ॥ <BR/><BR/>


कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । <BR/>
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । <BR/>
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ <BR/><BR/>

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । <BR/>
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ <BR/><BR/>

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । <BR/>
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ <BR/><BR/>

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । <BR/>
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ <BR/><BR/>

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । <BR/>
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ <BR/><BR/>

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । <BR/>
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ <BR/><BR/>

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । <BR/>
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ <BR/><BR/>

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । <BR/>
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ <BR/><BR/>

॥ भक्ति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । <BR/>
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । <BR/>
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । <BR/>
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । <BR/>
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । <BR/>
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । <BR/>
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । <BR/>
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । <BR/>
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । <BR/>
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । <BR/>
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । <BR/>
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ <BR/><BR/>

गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । <BR/>
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ <BR/><BR/>

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । <BR/>
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । <BR/>
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । <BR/>
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ <BR/><BR/>

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । <BR/>
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ <BR/><BR/>

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । <BR/>
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ <BR/><BR/>

आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । <BR/>
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ <BR/><BR/>

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । <BR/>
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ <BR/><BR/>

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । <BR/>
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ <BR/><BR/>

निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । <BR/>
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ <BR/><BR/>

तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । <BR/>
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ <BR/><BR/>

खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । <BR/>
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ <BR/><BR/>

ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । <BR/>
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । <BR/>
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ <BR/><BR/>

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । <BR/>
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । <BR/>
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ <BR/><BR/>

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । <BR/>
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ <BR/><BR/>

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । <BR/>
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । <BR/>
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ <BR/><BR/>

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । <BR/>
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ <BR/><BR/>

॥ चेतावनी ॥ <BR/><BR/>


कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । <BR/>
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । <BR/>
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । <BR/>
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । <BR/>
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ <BR/><BR/>

कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । <BR/>
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ <BR/><BR/>

कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । <BR/>
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ <BR/><BR/>

कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । <BR/>
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ <BR/><BR/>

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । <BR/>
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । <BR/>
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ <BR/><BR/>

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । <BR/>
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ <BR/><BR/>

कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । <BR/>
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ <BR/><BR/>

कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । <BR/>
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ <BR/><BR/>

कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । <BR/>
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ <BR/><BR/>

कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । <BR/>
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ <BR/><BR/>

कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । <BR/>
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ <BR/><BR/>

कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । <BR/>
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ <BR/><BR/>

कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । <BR/>
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ <BR/><BR/>

कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । <BR/>
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ <BR/><BR/>

कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । <BR/>
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ <BR/><BR/>

एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । <BR/>
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ <BR/><BR/>

ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । <BR/>
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ <BR/><BR/>

मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । <BR/>
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ <BR/><BR/>

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । <BR/>
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ <BR/><BR/>

कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । <BR/>
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ <BR/><BR/>

कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । <BR/>
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ <BR/><BR/>

हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । <BR/>
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ <BR/><BR/>

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । <BR/>
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ <BR/><BR/>

ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । <BR/>
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ <BR/><BR/>

पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । <BR/>
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ <BR/><BR/>

आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । <BR/>
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ <BR/><BR/>

आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । <BR/>
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ <BR/><BR/>

कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । <BR/>
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ <BR/><BR/>

सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । <BR/>
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ <BR/><BR/>

ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । <BR/>
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ <BR/><BR/>

ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । <BR/>
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ <BR/><BR/>

ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । <BR/>
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ <BR/><BR/>

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । <BR/>
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ <BR/><BR/>

मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । <BR/>
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ <BR/><BR/>

घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । <BR/>
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ <BR/><BR/>

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । <BR/>
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ <BR/><BR/>

पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । <BR/>
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ <BR/><BR/>

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । <BR/>
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ <BR/><BR/>

कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । <BR/>
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ <BR/><BR/>

यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । <BR/>
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ <BR/><BR/>

कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । <BR/>
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ <BR/><BR/>

जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । <BR/>
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ <BR/><BR/>
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