भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहीम दोहावली - 5

14,983 bytes added, 05:57, 11 अगस्त 2007
New page: उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/> सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><...
उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/>
सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>

समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम । <BR/>
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>

उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर । <BR/>
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>

सुगमहि गातहि गारन, जारन देह । <BR/>
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>

मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार । <BR/>
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>

झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह । <BR/>
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>
झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात । <BR/>
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>

डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार । <BR/>
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>

कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय । <BR/>
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>

जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ । <BR/>
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>

मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ । <BR/>
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>

वेद पुरान बखानत, अधम उधार । <BR/>
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>

लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर । <BR/>
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>

लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस । <BR/>
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>

बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव । <BR/>
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>

भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग । <BR/>
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>

भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार । <BR/>
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>
जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग । <BR/>
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>

जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस । <BR/>
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>

देखन ही को निसदिन, तरफत देह । <BR/>
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>

कब तें देखत सजनी, बरसत मेह । <BR/>
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>

विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि । <BR/>
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>

उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि । <BR/>
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>

भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार । <BR/>
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>

हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक । <BR/>
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>

इन बातन कछु होत न, कहो हजार । <BR/>
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>

कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति । <BR/>
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>

बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर । <BR/>
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>
भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि । <BR/>
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>

अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार । <BR/>
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>

घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय । <BR/>
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं । <BR/>
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>

सहज हँसोई बातें, होत चवाइ । <BR/>
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>

ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह । <BR/>
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>

मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय । <BR/>
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>

अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात । <BR/>
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>

निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात । <BR/>
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान । <BR/>
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>

जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात । <BR/>
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>
ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान । <BR/>
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>

मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात । <BR/>
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>

जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन । <BR/>
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>

कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय । <BR/>
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>

जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ । <BR/>
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>

मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक । <BR/>
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>

गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक । <BR/>
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>

होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि । <BR/>
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>

दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू । <BR/>
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>

जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं । <BR/>
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>

उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार । <BR/>
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । <BR/>
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>

जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस । <BR/>
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>

चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय । <BR/>
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>

तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात । <BR/>
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>

और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह । <BR/>
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>

जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास । <BR/>
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>

अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान । <BR/>
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>

गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप । <BR/>
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>

सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय । <BR/>
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज । <BR/>
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>

जिहिके लिये जगत में, बजै निसान । <BR/>
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>
रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर । <BR/>
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>

विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय । <BR/>
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर । <BR/>
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>

लखि मोहन की बंसी, बंसी जान । <BR/>
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>

तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ । <BR/>
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥ <BR/><BR/>

मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार । <BR/>
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥ <BR/><BR/>

नव नागर पद परसी, फूलत जौन । <BR/>
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>

समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति । <BR/>
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥ <BR/><BR/>

नृप जोगी सब जानत, होत बयार । <BR/>
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥ <BR/><BR/>

मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन । <BR/>
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥ <BR/><BR/>

भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस । <BR/>
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>
गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार । <BR/>
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥ <BR/><BR/>

दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह । <BR/>
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥ <BR/><BR/>

लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग । <BR/>
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥ <BR/><BR/>

मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि । <BR/>
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥ <BR/><BR/>

होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय । <BR/>
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/>

अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर । <BR/>
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥ <BR/><BR/>

आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि । <BR/>
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥ <BR/><BR/>

पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव । <BR/>
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥ <BR/><BR/>

या झर में घर घर में, मदन हिलोर । <BR/>
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥ <BR/><BR/>

बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि । <BR/>
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ <BR/><BR/>
Anonymous user