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उसका हर प्रश्न

एक प्रतिरोध की तरह था !

ना वो सड़क पर खड़ी थी,

और ना ही इस देश की संसद के चौराहे पर !

होस्टल के एक छोटे से कमरे में

एक-एक कपडा उतारते हुए

वो सोच रही थी, कि

आखिर इसमें ऐसा क्या है ?

कि मेरे देश का वो हर कोना

जहाँ मैं खड़ी होती हूँ

बाज़ार बन जाता है !

आखिर मेरा देश मेरे लिए दर्जी क्यों है ?

जो मुझे हर तरफ से नाप तौल लेना चाहता है !

जो हर बार नापने तौलने से पहले

मुझे बताता है कि

'आजकल यही चल रहा है'

वो पूछती है कि,

आखिर ये चला कौन रहा है ?

और उसकी नज़र कहाँ है ?


इतने में रसोईघर में

माँ के हाथ से थाली छूट जाती है!

और हांफते हुए बोली,

इस घर में दो ही मूर्तियाँ टंगी हैं

एक सती कि, दूसरे सीता की,

जिसे तेरे पिता मंदिर की

सीढियों से उठा लाये थे !
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