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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
गुल को अंगार कर गया है ग़म
सब हदें पार कर गया है ग़म

घर मेरा छोड़ने को कहता था
आज इन्कार कर गया है ग़म

क्या बतायें कि कैसे जीते हैं
जीना दुश्वार कर गया है ग़म

देखना मत बड़े-बड़े सपने
फिर ख़बरदार कर गया है ग़म

दिल में हर पल चुभन सी होती है
वक्त को ख़ार कर गया है ग़म

इतना आसाँ नहीं सम्हल जाना
वार पर वार कर गया है ग़म

चोट खाकर भी मुस्कुराता हूँ
कितना दमदार कर गया है ग़म
<poem>
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