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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
चुप रहेंगे ग़लत पर कदाचित नहीं
ठीक से तुम अभी हमसे परिचित नहीं

बिन बुलाए ही हम आए जिसके लिए
बज़्म में शख़्स वो ही उपस्थित नहीं

ऐसा सत्कार मित्रों अखरता बहुत
जिसमें अपनत्व होता समाहित नहीं

लोक लज्जा का कुछ ध्यान रखते हैं हम
मत समझ तेरे प्रति हम समर्पित नहीं

यार सन्यासियों का है डेरा यहाँ
आ चलें ये जगह कुछ सुरक्षित नहीं

उसका जीवन कठिन है बहुत आजकल
झूठ, छल-छद्म में जो प्रशिक्षित नहीं

ऐ ‘अकेला’ न ईमान बेचा गया
वरना सुविधाओं से रहते वंचित नहीं
<poem>
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