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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
पंखों को आराम दिया कब, हरदम रहा उड़ान में
ये ऊँचाई उसने पाई नहीं किसी से दान में

भरी सभा में उनके वादे उनको याद दिलाए हैं
एक यही गुस्ताख़ी कर दी मैंने उनकी शान में

तेरा इक आँसू टपका तो दिल से गुज़रे ढेरों दुख
और सैकड़ों सुख गुज़रे हैं तेरी इक मुस्कान में

माना वो क़ातिल है पर बेदाग़ बरी हो जाएगा
पैसा हो तो सब सम्भव है अपने देश महान में

कहा बहुत कुछ लेकिन जो कहना था वो ही भूल गया
कोई बात समय पर यारो कब आती है ध्यान में

जनता की तक़लीफ़ें सुनने का ये ढंग निराला है
देखो बैठे हैं साहब जी रूई ठूंसे कान में

मैं रचनाधर्मी हूँ मेरी भी तो अपनी प्रभुता है
शीश झुकाए शब्द खड़े हैं मेरे भी सम्मान में

मेरे आगे कुछ भी नहीं ‘अकेला’- कहते फिरते थे
अब क्यों झिझक रहे हो इतने आ जाओ मैदान में
<poem>
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