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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
दर्दे-दिल पहुँचेगा अब अंजाम तक
इक ग़ज़ल काग़ज़ पे होगी शाम तक

आ नहीं पाया हवा दुश्मन हुई
उसका फेंका ख़त हमारे बाम तक

कुछ तो वो सामान भी चोरी गया
चुक नहीं पाए थे जिसके दाम तक

सैकड़ों रावन अभी मौजूद हैं
बात पहुँचा दे ये कोई राम तक

दौर ये सच्चों पे इल्ज़ामों का है
सोच मत मुझ पर लगे इल्ज़ाम तक

दिल पे पत्थर रख के कहना ही पड़ा
भूल जाना तुम हमारा नाम तक

मयकशों के साथ रहता हूँ तो क्या
लब कभी पहुँचे नहीं हैं जाम तक

ऐ ‘अकेला’ बस उसी का राज है
ख़्वाब से लेकर ख़याले-ख़ाम तक
<poem>
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