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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
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<poem>
पटरी से उतरी है जीवन की रेल
ख़त्म हुआ खेल, समझ ख़त्म हुआ खेल
हुए हम अहिंसा पर ऐसे मेहरबान
कायरता बन बैठी अपनी पहचान
जड़ गया जो कोई कभी चनकट दो चार
सहज भाव से हमने स्वीकारे यार
ख़ुश हुए कबाड़े में बन्दूकें डाल
कोई भी कह जाता-खींचेंगे खाल
क्या अचरज अगर हमें धमकाए वो
हाथ में जो थामे है टुटल्ली गुलेल
पटरी से उतरी है ..............................
बतलाते फिरते जो सब में ही खोट
चड्डी पर पहने हैं चमकीला कोट
कैसा चिंतन उनका कैसा है ज्ञान
मुंह को खोले रक्खो, बंद रखो कान
फैले हैं उनके अनुयायी चहुं ओर
रजनी को कहते हैं सुखदायी भोर
हैं ऐसे ऊँट पे वो शौक से सवार
नाक में नहीं जिसके देखिए नकेल
पटरी से उतरी है ..............................
व्यवस्थाएँ अपनी हैं जग में बेजोड़
सब कुछ है इनमें बस व्यवस्था को छोड़
संस्थाएँ काग़ज़ पर चलती हैं मौन
बीते हैं बरसों पर जान सका कौन
आँखों देखी कहता सुन लीजे आप
अमृत की होलसेल करते हैं साँप
जिनमें अनुपस्थित थे उनमें हम पास
जो पेपर दिए हुए उनमें ही फेल
पटरी से उतरी है ..............................
संसद में है कक्षा दो जैसा शोर
एक दूसरे को सब बतलाते चोर
खींचातानी में ही बीत रहे वर्ष
चुपके-चुपके चलता स्वार्थ का विमर्श
नैतिकता की किसको है यहाँ फिकर
जीवित मस्तिष्क, गयीं आत्माएँ मर
सत्य पे ग़रूर तुम्हें पागल हो क्या
सत्य के दिये में अब कहाँ बचा तेल
पटरी से उतरी है ..............................
कौन ये अलाप रहा उन्नति का राग
बंद करो भड़क रही सीने में आग
भूखे सो जाते हैं कितने ही लोग
बेकारी का कितने झेल रहे रोग
टूटी सब उम्मीदें, टूटे हैं मन
जीवन से उकताया दिखता जन-जन
कैसा सींचा तुमने अपना ये बाग़
सूखे सब पौधे, मुरझाई हर बेल
पटरी से उतरी है ...........................
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
पटरी से उतरी है जीवन की रेल
ख़त्म हुआ खेल, समझ ख़त्म हुआ खेल
हुए हम अहिंसा पर ऐसे मेहरबान
कायरता बन बैठी अपनी पहचान
जड़ गया जो कोई कभी चनकट दो चार
सहज भाव से हमने स्वीकारे यार
ख़ुश हुए कबाड़े में बन्दूकें डाल
कोई भी कह जाता-खींचेंगे खाल
क्या अचरज अगर हमें धमकाए वो
हाथ में जो थामे है टुटल्ली गुलेल
पटरी से उतरी है ..............................
बतलाते फिरते जो सब में ही खोट
चड्डी पर पहने हैं चमकीला कोट
कैसा चिंतन उनका कैसा है ज्ञान
मुंह को खोले रक्खो, बंद रखो कान
फैले हैं उनके अनुयायी चहुं ओर
रजनी को कहते हैं सुखदायी भोर
हैं ऐसे ऊँट पे वो शौक से सवार
नाक में नहीं जिसके देखिए नकेल
पटरी से उतरी है ..............................
व्यवस्थाएँ अपनी हैं जग में बेजोड़
सब कुछ है इनमें बस व्यवस्था को छोड़
संस्थाएँ काग़ज़ पर चलती हैं मौन
बीते हैं बरसों पर जान सका कौन
आँखों देखी कहता सुन लीजे आप
अमृत की होलसेल करते हैं साँप
जिनमें अनुपस्थित थे उनमें हम पास
जो पेपर दिए हुए उनमें ही फेल
पटरी से उतरी है ..............................
संसद में है कक्षा दो जैसा शोर
एक दूसरे को सब बतलाते चोर
खींचातानी में ही बीत रहे वर्ष
चुपके-चुपके चलता स्वार्थ का विमर्श
नैतिकता की किसको है यहाँ फिकर
जीवित मस्तिष्क, गयीं आत्माएँ मर
सत्य पे ग़रूर तुम्हें पागल हो क्या
सत्य के दिये में अब कहाँ बचा तेल
पटरी से उतरी है ..............................
कौन ये अलाप रहा उन्नति का राग
बंद करो भड़क रही सीने में आग
भूखे सो जाते हैं कितने ही लोग
बेकारी का कितने झेल रहे रोग
टूटी सब उम्मीदें, टूटे हैं मन
जीवन से उकताया दिखता जन-जन
कैसा सींचा तुमने अपना ये बाग़
सूखे सब पौधे, मुरझाई हर बेल
पटरी से उतरी है ...........................
<poem>