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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>

बंजर धरती कैसे हरी भरी होगी
चमन पल्लवित-पुष्पित होंगे तो कैसे
यहाँ हाथ पर हाथ धरे सब बैठे हैं
सुखद स्वप्नफल अर्जित होंगे तो कैसे

क़िस्मत का रोना रोने से क्या होगा
पलकों पर आँसू ढोने से क्या होगा
अपना आज व्यवस्थित कर लो अच्छा है
कल के हित चिंतित होने से क्या होगा
बीते दुखद प्रसंग न हो पाये विस्मृत
सुख जीवन में प्रकटित होंगे तो कैसे
बंजर धरती..................................................

आत्मकथ्य ऊँचे हैं बोनी करनी है
ऐसे में कुछ हालत कहाँ सुधरनी है
प्रभु को है परहेज़ चरण-रज देने में
कहिए फिर किस तरह अहिल्या तरनी है
चलनी में जल भरने का प्रहसन जारी
ये दुखड़े प्रतिबंधित होंगे तो कैसे
बंजर धरती...................................................

कितनी आशाएँ निबटी हैं सस्ते में
सभी योजनाएँ हैं ठंडे बस्ते में
हमको तो निर्विघ्न मार्ग भी खलता है
क्या होगा अनगिन रोड़े हैं रस्ते में
चिंतन, मनन, अध्ययन में रूचि नहीं रही
फिर हम ज्ञानी पंडित होंगे तो कैसे
बंजर धरती.....................................................

सम्मुख जो संकट हैं उन पर चुप हैं सब
सम्भावित ख़तरों पर चर्चाएँ जब तब
नौकाओं के छिद्रों को पुरवाना था
फिर पतवारें नयी ख़रीदीं, क्या मतलब
हम औघड़दानी उपजाते भस्मासुर
दुर्दिन भला पराजित होंगे तो कैसे
बंजर धरती.....................................................

सर्वश्रेष्ठता के मद में हम फूले हैं
भूलों का विश्लेषण करना भूले हैं
औरों को नीचा दिखलाने में माहिर
ख़ुद की निंदाओं पर आगबबूले हैं
आग लगा पानी को दौड़ा करते हम
जग में महिमा मंडित होंगे तो कैसे
बंजर धरती..............................................

गति जीवन है चक्र समय का थमता क्या?
ठहरावों से है जीवन की समता क्या?
राहों पर सुख-साधन-चिंतन अनुचित है
यात्रा में दुर्गमता और सुगमता क्या ?
चलने की क्षमताएँ गिरवी रख दी हैं
गंतव्यों से परिचित होंगे तो कैसे
बंजर धरती................................................
<poem>
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