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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
झूठ पर कुछ लगाम है कि नहीं
सच का कोई मक़ाम है कि नहीं

आ रहे हैं बहुत से 'पंडित' भी
जाम का इन्तज़ाम है कि नहीं

इसकी उसकी बुराईयाँ हर पल
तुमको कुछ काम-धाम है कि नहीं

सुब्ह पर हक़ जताने वाले बता
मेरे हिस्से में शाम है कि नहीं

रोना रोते हो किस ग़रीबी का
घर में सब तामझाम है कि नहीं

इतना मिलना भी कम नहीं यारो
हो गई राम-राम है कि नहीं

हाथ का मैल ही सही पैसा
सारी दुनिया ग़ुलाम है कि नहीं

इक नए ही लिबास में है ग़ज़ल
ये 'अकेला' का काम है कि नहीं
<poem>
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