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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
शांति हो, सदभावना हो भाईचारा हो
हे प्रभो, मेरे वतन में यह दुबारा हो

द्वेष के दलदल से बाहर कर हमें भगवन
हर कलह की कालिमा निर्मल हों सबके मन
फिर धरा पर वो सुधामय प्रेमधारा हो
हे प्रभो, मेरे वतन में यह दुबारा हो
शांति हो....

दूध की नदियाँ भले ही ना बहें फिर से
स्वर्ण-महलों में भले हम ना रहें फिर से
पर कोई भूखा न हो, ना ही उघारा हो
हे प्रभो, मेरे वतन में यह दुबारा हो
शांति हो....

बुद्धि दे इतनी असत्-सत् जान जाएँ हम
और बल इतना कि शोषित हो न पाएँ हम
प्राण से बढ़कर हमें कर्तव्य प्यारा हो
हे प्रभो, मेरे वतन में यह दुबारा हो
शांति हो....
<poem>
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