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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
ख़ून-पसीना काम न आया तो ग़ुस्सा आया
मेहनत का फल खट्टा पाया तो ग़ुस्सा आया

वो मेरे ज़ख़्मों पर मरहम रखता, ना रखता
उसने नमक-मिर्च दिखलाया तो ग़ुस्सा आया

तन झुलसाती धूपों की यात्रा से जब लौटे
मिली टीन की तपती छाया तो ग़ुस्सा आया

दुनिया उल्टा सीधा बकती थी बकने देते
तुमने भी वो ही फ़रमाया तो ग़ुस्सा आया

मुझे कुपात्रों पर शासन का दयाभाव अखरा
बंदर को उस्तरा थमाया तो ग़ुस्सा आया

वो अपना हिस्सा लेकर भी था संतुष्ट कहाँ
उसने और बड़ा मुँह बाया तो ग़ुस्सा आया

हाँ ये सच है झूठ ‘अकेला’ को बरदाश्त नहीं
दुनिया ने सच को झुठलाया तो ग़ुस्सा आया
<poem>
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