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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>

जम्हूरी मुल्क़ में तुम हिटलरी क़ायम करोगे क्या
तुम्हारी बात ना मानी तो गोली मार दोगे क्या

ज़रा ग़ुस्सा हो कम उसका तो फिर समझाइशें देना
भरी बरसात में बाहर की दीवारें रंगोगे क्या

तुम्हारा कृष्ण सा वैभव मेरी हालत सुदामा सी
अगर मैं सामने आऊँ मुझे पहचान लोगे क्या

मैं अपने कान को अब और ज़हमत दे नहीं सकता
ज़ुबां अपनी ज़रा सी देर क़ाबू में रखोगे क्या

जब अपने लोग ही खिल्ली उड़ाने पे हों आमादा
तब ऐसे में ‘अकेला’ तुम ज़माने को कहोगे क्या
<poem>
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