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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
हाले-दिल क्या सुनाएँ मंटोले
सिर मुढ़ाते ही पड़ गए ओले

हैं ज़ुबानों की ताक में छुरियाँ
ऐसी मुश्किल में कौन लब खोले

आखि़र ईमान बेचना ही पड़ा
दाम भी मिल न पाए मुँह बोले

किसको पहचानते फिरोगे तुम
लोग बदलेंगे रोज़ ही चोले

आ गये फिर उसी की बातों में
यार तुम भी हो किस क़दर भोले

मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
बोलिए फिर से आप क्या बोले

इतना ही काम है तेरा ऐ गुल
तू फ़ज़ाओं में ख़ुशबुएँ घोले

ऐ ‘अकेला’ किसे ये है मालूम
वक्त करवट जो ले कहाँ को ले
<poem>
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