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Kavita Kosh से
किसिम किसिम के
संबोधन के महज दिखावे हैं
संबंधों की अलगनियों पर सबके दावे हैं।हैं ।
दुर्घटना की आशंकाऍंआशंकाएँजैसे जहॉंजहाँ-तहॉंतहाँकुशल -क्षेम की तहकी़कातेंहोती रोज यहॉंरोज़ यहाँ
अपनेपन की गंध तनिक हो
इनमें मुमकिन है
पर ये रटे-रटाए जुमले महज छलावे हैं।हैं ।
घर दफ्तर दफ़्तर हर जगहदीखते बॉंहें बाँहें फैलाए
होठों पर मुस्कानें ओढ़े
भीड़ों के साए
हँसते -बतियाते हैं यों तो
लोग बहुत खुल कर
मुँह पर ठकुर-सुहाती भीतर जलते लावे हैं।हैं ।
निहित स्वार्थों वाली जेबें
सभी ढॉंपते ढाँपते हैं
ग़ैरों की मजबूरी का सुख
लोग बॉंटते बाँटते हैंदुआ-बंदगी, हँसी -ठहाके
हुए औपचारिक
आईनों के पुल तारीफी तारीफ़ी महज भुलावे हैं। हैं ।
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