भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=ओम निश्चल
|संग्रह=शब्दि शब्द सक्रिय हैं
}}
{{KKCatNavgeet}}
यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बॉंधता है।बाँधता है ।सामने फैला नदी का छोर मन को बॉंधता है।बाँधता है ।
बादलों के व्यूह में
भटकी हुई मद्धिम दुपहरी
कौंध जाती बिजलियों-सी
ये घटाऍं घटाएँ शोख
यह माहौल को रँगती सियाही,
गुम गए हैं अँधेरों में
रोशनी के किरनवाही
लहरियों पर लहरियों का दौर मन को बॉंधता है।बाँधता है सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है।है
दूर तक फैली हुई है
रेत की रंगीन दुनिया,
<Poem>