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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
क्या बतलाएँ हम पर यारो रात वो कितनी भारी थी
एक तरफ़ था प्यार हमारा एक तरफ़ खुद्दारी थी

जिसका जिससे मतलब हल हो उसको उससे मतलब था
सब स्वारथ के समझौते थे किससे किसकी यारी थी

झूठे आश्वासन पर हमको बरसों लटकाए रक्खा
साफ़ मना करने में उसको जाने क्या दुश्वारी थी

निश्चित ही अधिवक्ताओं से थे उसके संबंध मधुर
सच को झूठ बना देने की उसमें सब हुशियारी थी

झूठे थे दावे वैद्यों के उसको अच्छा करने के
कोई वैद्य न बतला पाया आखि़र क्या बीमारी थी

पहली कविता लिख लेने पर सुख संतोष निराला था
मानो वन्ध्या के घर-आँगन गूँज उठी किलकारी थी

पार नदी करने को ‘अकेला’ सब उत्साहित बैठे थे
बस नौका उपलब्ध नहीं थी बाक़ी सब तैयारी थी
<poem>
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