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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
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<poem>
भले ही तुमको जी भर मैंने कोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर पूरा भरोसा है, प्रभो !
सम्हाला होश जब से ये न जाना है ख़ुशी क्या
निरन्तर आह भरना बस यही है ज़िन्दगी क्या
हुए सब स्वप्न खंडित मृत हुईं आशाएँ सारी
मिला है छल हमेशा आस्था हर बार हारी
कि हर पल ही तो मैंने मन मसोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
गिने जाते नहीं दिल पर लगे हैं घाव इतने
मुझ ही पर आज़माएगी मुसीबत दाँव कितने
जिया जाता नहीं है अब तो दम घुटने लगा है
मेरी साँसों का राही रोज़ ही लुटने लगा है
कि मेरे हक़ में तुमने क्या परोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
तुम्हारे राज्य में क्यों देखा-देखी हो रही है
बिलख कर न्याय की देवी वो देखो रो रही है
हँसें कुछ लोग बाक़ी सबके चेहरों पर उदासी
कि अब ये ज़िन्दगी लगने लगी है बद्दुआ-सी
किसी का सुख किसी ने क्यों ढकोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
भले ही तुमको जी भर मैंने कोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर पूरा भरोसा है, प्रभो !
सम्हाला होश जब से ये न जाना है ख़ुशी क्या
निरन्तर आह भरना बस यही है ज़िन्दगी क्या
हुए सब स्वप्न खंडित मृत हुईं आशाएँ सारी
मिला है छल हमेशा आस्था हर बार हारी
कि हर पल ही तो मैंने मन मसोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
गिने जाते नहीं दिल पर लगे हैं घाव इतने
मुझ ही पर आज़माएगी मुसीबत दाँव कितने
जिया जाता नहीं है अब तो दम घुटने लगा है
मेरी साँसों का राही रोज़ ही लुटने लगा है
कि मेरे हक़ में तुमने क्या परोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
तुम्हारे राज्य में क्यों देखा-देखी हो रही है
बिलख कर न्याय की देवी वो देखो रो रही है
हँसें कुछ लोग बाक़ी सबके चेहरों पर उदासी
कि अब ये ज़िन्दगी लगने लगी है बद्दुआ-सी
किसी का सुख किसी ने क्यों ढकोसा है, प्रभो !
तुम्हारे न्याय पर...
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