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Kavita Kosh से
वर्तनी व फॉर्मेट सुधार
हीरे मोती जड़ी चादरें
सिर पर ओढे़ओेढ़े
पृथ्वी दिखलावे करती है
परम सुखों के।
कोई आकर पूछे इससे
छाती में ज्वालामुखियाँ भर
किसे भुलावे देती हो तुम,
जमे हुए औ’ सर्द
पर्वतों-से दुःख ढोकर
नदियाँ क्या यूँ ही
खारे पानी
क्यूँ ढलते हैं?
फिर चाहे पैंजनी बजाती
या सूरज का पहन बोरला
आँचल को अटकाए
शाख-शाख से ताल बजाओ
माथे पर कुमकुम छितराओ
पर चुपके-चुपके रोती हो
इसीलिए तो हीरों वाले
किंतु पता है.......
तुम तो दिखलावे करती हो
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