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Kavita Kosh से
आओ कि हम समझ लें नापाक सब इरादे
कह दें कि बस सुनेंगे पाकीज़गी की दस्तक !
अमूमन है होती
सहर कोई जैसी
मगर दूर बैठे
थे कुछ ऐसे साए
अमूमन है ढलती
अच्छी किसे है लगती बेहूदगी की दस्तक