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Kavita Kosh से
}}{{KKAnthologyDeshBkthi}}
{{KKCatKavita}}<poem>जहां भी जिस तरफ भी मुड़े
सामने से आनेवाले लोगो लोगों के अंदरअपने ही सरिस कोई तत्व देखने सेमन मे में उठे भय के कारण
मेरा दुबका कोई स्थान
आईनों से रहित कमरा
'फलां ही है' कह्कर कहकर पह्चान पहचान कराने वाले
आईने से रहित कमरा
सदा की तरह् नहीं हू हूं किसी की तरह् नहीं हू हूं
ना, ना, यो
अपने भीतर बुदबुदाते
सदा की तरह की किसी चीज कॊकोनकारतॆ नकारते हुएबदलतॆ बदलते हुए
सजाया गया कमरा
कभी प्रवॆश करनॆ वालॆ प्रवेश करने वाले व्यक्ति सॆसेकहती रहती हूहूंआईनो आईनों सॆ से रहित
बदली हुई सजावट वाला है
और
सुन रही हू हूं वही मैं |
'''अनुवाद- डॉ. एच. बालसुब्रहमण्यम'''
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