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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
दी गई क्यों सज़ा हम नहीं जानते
हो गया जुर्म क्या हम नहीं जानते

सारे मर्ज़ों की पहचान रखते हैं हम
पर किसी की दवा हम नहीं जानते

नफ़रतें नफ़रतों से मिटाने चले
होगा अंजाम क्या हम नहीं जानते

इतना काफ़ी है नुक़सान ने बच गये
क्या हुआ फ़ायदा हम नहीं जानते

मशवरा हमसे लेने को किसने कहा
अपना अच्छा बुरा हम नहीं जानते

आदमी आदमी में यहाँ इस क़दर
क्यों है ये फ़ासला हम नहीं जानते

ज़िन्दगी की ग़ज़ल कैसे पूरी करें
अब कोई काफ़िया हम नहीं जानते

यूँ ही अंदाज़िया कर रहे हैं सफ़र
मंज़िलों का पता हम नहीं जानते

ऐ ‘अकेला’ ये नाज़ुक सा दिल तोड़कर
आपको क्या मिला हम नहीं जानते
<poem>
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