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Kavita Kosh से
<poem>
लगी आग सीने में मेरे लगी है
बुझाता हूं लेकिन ये भड़की हुई है
लगा तुझको धोखा हकीकत यही है
लबों पे मेरे साफ़गोई जमी है
बुराई-बुराई नज़र आ रही है
भलाई पे लेकिन ये दुनिया टिकी है
क्या गुम्मबद से लौटी सदा सी सुनी है
चलो अब चलें धूप सिर पे बहुत -सी
कदम दर कदम ये चढ़े जा रही है