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रहिये मौन/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
एक नेता जी ने अचानक
राजनीति को अलविदा कह दिया
और आ गये
साहित्य की शरण में
एक साहित्यिक गोष्ठी में
उन्होंने कहा-
“राजनीति कमीनी है, कुत्ती है
राजनीति के ज़हरीले माहौल में
दम घुटने लगा था मेरा
साँस लेना हो गया था दूभर
इसीलिए हमेशा को
त्याग कर राजनीति
आ गया हूँ
साहित्य के स्वच्छ वातावरण में”

सुनने में आया
कुछ समय बाद
कि वे नेता जी
लौट गए हैं फिर
कुत्ती-कमीनी राजनीति की शरण में
बदल गयी है भाषा उनकी क्षण में
मैंने चाहा पूछूँ उन महाशय से कि-
क्या आवश्यकता आन पड़ी थी
दोबारा दम घुटवाने की
राजनीति के बदबूदार
ज़हरीले माहौल में जाने की

फिर सोचा-
‘किसी व्यक्ति का दम
उसका अपना दम होता है
जो किसी बाह्य शक्ति की अधीनता
नहीं ढोता है
वह पूरी तरह स्वतंत्र है
प्रजातंत्र को मूल मंत्र है
वह जब जहाँ चाहे घुटे
और जब जहाँ चाहे न घुटे
इस आन्तरिक मामले में
दख़ल देने वाले
आप कौन?
अगर अपना भला चाहते हैं तो
रहिये मौन ।
<poem>
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