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|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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'''( औसत सवर्ण हिन्दुओं का गीत)'''

मंहगी पड़ जायेगी बेफिक्री ओ भाई
बंदर के हाथ लगा उस्तरा बचो भाई

पूर्ण साम्प्रदायिक है राम राम अभिवादन
सेकुलर व्यवस्था के बाँचे हैं विज्ञापन?
अभिवादन का नहीं तरीक़ा यदि बदला तो
फासिस्टों की सूची में होगा नामांकन
कोई भी परिचित जब टकराये तुम्हें कहीं
राम राम करना मत, नमस्ते करो भाई
बंदर के हाथ लगा उस्तरा बचो भाई
मंहगी पड़ जायेगी..................................

प्रतिभा सम्पन्नों को घुट घुट कर मरना है
ग्रहणग्रस्त सूर्यों को अँधियारा हरना है
वोटों की तिकड़म में उलझा यह प्रजातंत्र
इसको ही नवयुग का अभिनंदन करना है
अस्पताल जाने से डरता हूँ डियुटी पर
आरक्षित कोटे का डाक्टर न हो भाई
बंदर के हाथ लगा उस्तरा बचो भाई
मंहगी पड़ जायेगी..................................

गिरवी हैं बरसों से वो सपने सतरंगी
चौतरफ़ा कोड़े हैं और पीठ है नंगी
हम सब स्वाधीनों के हिस्से में आयी हैं
काने क़ानूनों की परिणतियाँ बेढंगी
बिखरे हैं कांटे ही कांटे सब राहों पर
एक एक पग रस्ता फूँक कर चलो भाई
बंदर के हाथ लगा उस्तरा बचो भाई
मंहगी पड़ जायेगी..................................
<poem>
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