|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
{{KKPrasiddhRachna}}
<poem>
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल<br>क्षमाशील हो रिपु-समक्षसबका लिया सहारा<br>तुम हुये विनत जितना हीपर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे<br>दुष्ट कौरवों ने तुमकोकहो, कहाँ कब हारा ?<br><br>कायर समझा उतना ही।
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष<br>अत्याचार सहन करने कातुम हुये विनत जितना ही<br>कुफल यही होता हैदुष्ट कौरवों ने तुमको<br>पौरुष का आतंक मनुजकायर समझा उतना ही।<br><br>कोमल होकर खोता है।
अत्याचार सहन करने का<br>क्षमा शोभती उस भुजंग कोकुफल यही होता है<br>जिसके पास गरल होपौरुष का आतंक मनुज<br>उसको क्या जो दंतहीनकोमल होकर खोता है।<br><br>विषरहित, विनीत, सरल हो ।
क्षमा शोभती उस भुजंग को<br>तीन दिवस तक पंथ मांगतेजिसके पास गरल हो<br>रघुपति सिन्धु किनारे,उसको क्या जो दंतहीन<br>बैठे पढ़ते रहे छन्दविषरहित, विनीत, सरल हो अनुनय के प्यारे-प्यारे ।<br><br>
तीन दिवस तक पंथ मांगते<br>उत्तर में जब एक नाद भीरघुपति सिन्धु किनारे,<br>उठा नहीं सागर सेबैठे पढ़ते रहे छन्द<br>उठी अधीर धधक पौरुष कीअनुनय आग राम के प्यारे-प्यारे शर से ।<br><br>
उत्तर में जब एक नाद भी<br>सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहिउठा नहीं सागर से<br>करता आ गिरा शरण मेंउठी अधीर धधक पौरुष चरण पूज दासता ग्रहण की<br>आग राम के शर से ।<br><br>बँधा मूढ़ बन्धन में।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि<br>करता आ गिरा शरण सच पूछो , तो शर में<br>हीचरण पूज दासता ग्रहण बसती है दीप्ति विनय की<br>बँधा मूढ़ बन्धन में।<br><br>सन्धि-वचन संपूज्य उसी काजिसमें शक्ति विजय की ।
सच पूछो , तो शर में ही<br>बसती है दीप्ति विनय की<br>सन्धि-वचन संपूज्य उसी का<br>जिसमें शक्ति विजय की ।<br><br> सहनशीलता, क्षमा, दया को<br>तभी पूजता जग है<br>बल का दर्प चमकता उसके<br>पीछे जब जगमग है।<br><br/poem>