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|रचनाकार=काज़िम जरवली
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}}
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<poem>बात सच्ची हो तो चाहे जिस ज़बा मे बोलिये,
फर्क मतलब पर नहीं पड़ता है ख़ालिक़ कि क़सम ।
"माँ के पैरो मे है जन्नत" क़ौल है मासूम का,
मै मुसल्ले पर भी कह सकता हुं “वन्दे मातरम” ।। --”काज़िम” जरवली
</poem>
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मै मुसल्ले पर भी कह सकता हुं “वन्दे मातरम” ।। --”काज़िम” जरवली
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