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|रचनाकार=काज़िम जरवली
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<poem>दुनिया का सफ़र करता हुं मै खुद से निकल कर,
तन्हाई मै खुलते है नए दर मेरे अन्दर ।

एक नूर सा होता है मुनव्वर मेरे अन्दर,
खुलता है सहीफ़ा कोई अक्सर मेरे अन्दर ।

दरियाओं के पानी से मै मरऊब नहीं हुं,
पहले से है मौजूद समन्दर मेरे अन्दर ।

”काज़िम” मै हमेशा से उसी का हुं मुक़्क़लिद,
तबलीग़ कुना है जो पयम्बर मेरे अन्दर ।। --”काज़िम” जरवली
</poem>