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ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें शायर अपने दिल की बात अपनी शायरी की ज़बान में कम से कम लफ़्ज़ों में जितने प्रभावशाली तरीक़े से कह लेता है उतना
शायरी की किसी और विधा में मुमकिन नहीं । यानी एक ग़ज़ल में अगर सात शेर हैं तो उसमें अलग अलग सात मज़मून हैं, सात अलग अलग भावनाएँ हैं और उस पर भी शायर की कोशिश ये है कि हर मज़मून की तह तक उतरने की कोशिश करे और अपने हर मज़मून के साथ सामयीन को जोड़ने की पूरी कोशिश करे और अपने हर मज़मून के साथ सामयीन को जोड़ने की पूरी कोशिश करे । करे।
एक ज़माने में ग़ज़ल फ़ारसी वालों की मीरास मानी जाती थी जिसका मक़ान बादशाहों और नवाबों के दरबार हुआ करते थे । जिसका कुल सरमाया हुस्नो-इश्क़ और नाज़ुक मिज़ाजी ही हुआ करता था । फ़ारसी से उर्दू तक इस ग़ज़ल को आने में जिन जिन रास्तों से गुज़रना पड़ा ठीक वही रास्ते हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से रास्ता तय करके अपने मक़ाम तक आने में दरपेश आये ।
अब ऐसे ख़ास मोड़ का बयान करना यहाँ बहुत ज़रूरी है कि क्या वो तमाम शायर जो फ़ारसी से हट कर ग़ज़ल कह रहे थे उन सभी के नामों से हम वाक़िफ़ है? नहीं, उनमें से आज जो नाम बाक़ी हैं ये सिर्फ़ उन शायरों के नाम बाक़ी हैं जिन्होंने बेसमझे-बूझे शायरी नहीं की थी, बल्कि ये वो लोग हैं जो फ़ारसी से, फ़ारसी ग़ज़ल के लबो-लहजे, उसके औज़ान और उसकी तमाम नज़ाक़तों से वाक़िफ़ थे और ऐसे लोगों ने जब फ़ारसी से हट कर उस दौर की अवाम की लश्करी ज़बान उर्दू में शायरी की तो वो फ़ारसी ग़ज़ल का पूरा रंग उर्दू ग़ज़ल में भरने में कामयाब हुए और जब फ़ारसी दाँ तबक़े ने उस उर्दू ग़ज़ल को सुना और पढ़ा तो उसे कहना पड़ा कि हाँ वाक़ई ये ग़ज़ल है । सिर्फ़ लफ़्ज़ बदले हैं ग़ज़ल की आत्मा नहीं बदली । जब तक उर्दू ग़ज़ल ने अपने आप को फ़ारसी ग़ज़ल की कसौटी पर नहीं रखा तब तक उर्दू के ये दो दो मिसरे ग़ज़ल के मक़ाम तक नहीं पहुंचे ।
ये बात बिलकुल समझ में आने वाली है कि अगर किसी भी ज़बान का शायर दोहा या कोई सवैया लिखे तो उसे पैमाना हिन्दी विधा के दोहे या सवैये को ही बनाना पड़ेगा । उसकी नाप-तौल भी उसी पैमाने पर होगी और अगर ऐसा नहीं है तो किसी को हरगिज़ ये हक़ हासिल नहीं कि वो अपने हिसाब से कोई भी पैमाना मुक़र्रर कर ले और उसे दोहा या सवैया का नाम दे दे । फ़ारसी दाँ लोगों ने उस दौर में उर्दू ग़ज़ल को जो नकारा था, उसकी अस्ल वजह यही थी और आज भी जो लोग हिन्दी ग़ज़ल को ग़ज़ल नहीं मानते उसकी भी अस्ल वजह यही है । हिन्दी के ज़्यादातर ग़जलकार जो उर्दू की औज़ाने-शायरी से वाक़िफ़ नहीं हैं उन्होंने जब ग़ज़ल लिखी तो वो ग़ज़ल की कसौटी पर खरी नहीं उतरी और उसे ग़ज़ल नहीं स्वीकारा गया । लेकिन कुछ लोग ऐसे भी आये जो ग़ालिबो-मीर की ज़बान से वाक़िफ़ थे, ग़ज़ल जिनकी आत्मा में सरायत थी, जो अमीर खुसरो से लेकर बशीर बद्र तक के ग़ज़ल के सफ़र से वाक़िफ़ थे और इसके साथ ही हिन्दी भाषा पर भी उनका अधिकार था । ऐसे कुछ लोगों ने जब यही दो दो मिसरों वाली हिन्दी शायरी की तो उर्दू वाले भी चौंक गए और उन्होने कहा कि ये तो ग़ज़ल है । ऐसे शुरू हुई हिन्दी ग़ज़ल ; फ़ारसी से उर्दू की तरह-उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल का ये मोड़ बहुत ज़रूरी था क्योंकि आज की अवामी ज़बान वालों को ख़ालिस उर्दू समझ में आना मुमकिन नहीं । ज़रूरत खुद अपने रास्ते बना लेती है और इस रास्ते के खूबसूरत मोड़ पर जो चंद लोग खड़े हैं, जिनकी शायरी के आधार पर आने वाले साहित्यिक नस्लें हिन्दी ग़ज़ल का अपना पैमाना बनाएंगी उनमें एक नाम वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का भी है । अब ज़रा देखें उर्दू ग़ज़ल के नशेबो-फ़राज़ ‘अकेला’ साहब की हिन्दी ग़ज़ल में -
'''कहाँ खुश देख पाती है किसी को भी कभी दुनिया'''
भाई वीरेन्द्र खरे ने जब अपना तख़ल्लुस ‘अकेला’ रखा होगा तब न जाने क्या ख़्याल इनके ज़हन में रहा होगा । भले ही उनका ये सफ़र कभी अकेले ही शुरू हुआ हो लेकिन आज लोगों ने इस ‘अकेला’ को अकेला नहीं रहने दिया बल्कि एक भीड़ उसके साथ है। ‘अकेला’ के लिए ये कहना हक़-ब-जानिब होगा कि-
'''“ मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर''''''लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया ।”'''
मेरी दुआ है कि अल्लाह वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ के क़लम को और भी तक़वीयत (सामर्थ्य) अता करे और ये क़लम के ऐसे धनी बनें कि सदियों इन्हें याद रखा जाये ।
'''*[[मौलाना हारून ‘अना’ क़ासमी]]'''
'''हेल्पलाइन, आकाशवाणी तिराहा'''
09826506125
'''छतरपुर (म.प्र.)'''
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