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कभी कभी सोचा करता हूँ, मैं ये मन ही मन में,
 
क्यों फूलों की कमी हो गयी आखिर नंदन वन में?
 
हरे भरे धन धान्य पूर्ण खेतों की ये धरती थी,
 सुंदरता में इन्द्रसभा इसका पानी भरती थी. 
शश्य श्यामला धरती इसको देती थी सौगातें,
 
सोने जैसे दिन थे इसके चांदी जैसी रातें
 
सुप्रभात लेकर आते थे सत्यम शिवम सुन्दरम,
 अनायास ही हो जाते थे, जन जन को ह्रदयंगम  
यहाँ वंदना आडम्बर का बोझ नहीं ढोती थी,
 उच्चारण से नहीं, आचरण से पूजा होती थी.
बचपन में ये वाक्य लगा करता था कितना प्यारा,
 
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश हमारा,
 
इसी देश के बारे में कहती आई थीं सदियाँ,
 बही बही फिरती थीं इसमें दूध दही की नदियाँ  
पर अब कहीं देखने को भी वह उत्कर्ष नहीं हैं,
 
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
फूल आज भी खिलते हैं पर उनमें गंध नहीं है
 
जाने क्यों उपवन में उपवन सा आनंद नहीं है
 
कहाँ गयीं वे शश्य श्यामला धरती की सौगातें
 
कौन चुराता है सोने के दिन चांदी की रातें !
किसने जन जन के जीवन को यों काला कर डाला,
 
कौन हड़प जाता है सबके हिस्से का उजियाला
 
अब तो मुस्कानों के चेहरे पर भी हर्ष नहीं है
 
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
 
और अगर ये वही देश है, तो कितना है अचरज
 
चूस रहे हैं मानव कि हड्डी दधिचि के वंशज
 
जिनके पूर्वजनो ने जीवन सदा धरोहर माना
 
औरों की खातिर मरना था जीने का पैमाना.
 
उनकी संतानों ने पाया कैसा रूप घिनोना,
 
लाशों की मजबूरी से भी कमा रहे हैं सोना,
 
महावीर के संदेशों का ये निष्कर्ष निकला,
 
गौतम के शब्दों के अर्थों का अनर्थ कर डाला.
 
घर घर उनके चित्र टंगे हैं, पर आदर्श नहीं हैं
 
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
 
खींच रहा है द्रुपद सुता का अब भी चीर दुशासन
 
और पूर्ववत देख रहा है अंधा राज सिंहासन
 
पर तब से अब की स्थिति में एक बड़ा अंतर है
 
इस युग के कान्हा को दुर्योधन के धन का डर है
भीष्म, विदुर की तरह शक्ति वो चीर बढ़ाने वाली,
 
इस युग में करती है, दुर्योधन की नमक हलाली
 
इसी तरह खींची जायेगी, द्रोपदियों की साड़ी
 
यदि दुर्योधन धनी रहे और निर्धन कृष्ण मुरारी
 
एक दार्शनिक का है ये कवि का निष्कर्ष नहीं है
 तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है.
उस पर ये अजदहे प्रभु का ध्यान किया करते हैं
 
सच पूछो तो ये उसका अपमान किया करते हैं
 
इश्वर कभी नहीं चाहेगा यह उसकी संताने
 
महलों की जूठन से खाएं बीन बीन कर दाने
 
और अगर चाहे तो ऐसा इश्वर मान्य नहीं है
 
खास खेत के बेटों के घर में धन धान्य नहीं है
 
भ्रष्टाचारी, चोर, रिश्वती, बेईमान, जुआरी
 अपने पुण्यों के प्रताप से महलों के अधिकारी.
सोच रहे हैं सत्य अहिंसा मेहनत के अनुयायी
 
जीवन और मरण दोनों में कौन अधिक सुखदायी
 
बुनकर जीवन भर में अपना कफ़न नहीं बुन पाते
 
जैसे नंगे पैदा होते , वैसे ही मर जाते
 
रग रग दुखती है समाज की कब तक कहें कहानी,
 
लगता है अब नहीं रहा है किसी आँख में पानी,
 
किसी देश में जब ऎसी बेशर्मी घर कर जाए,
 
जब उसके जन जन की आँखों का पानी मर जाए
 
पहले तो वो देश अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा
 
और रहे भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा
 
इसीलिये कहता हूँ साथी अपने होश संभालो,
 
बुद्धजीवियो, कवियों कोई ऐसी युक्ति निकालो
 
हरा-भरा दिखने लग जाए, फिर से यह नंदनवन
 
वनवासी श्रम को मिल जाए फिर से राज सिंहासन
 
शश्य श्यामला धरती उगले फिर से वो सौगातें,
 सोने जैसे दिन हो जाएँ चांदी जैसी रातें,
सुप्रभात लेकर फिर आयें सत्यम शिवम सुन्दरम
 अनायास ही हो जाएँ फिर जन जन के हृदय नमह्रदयंगम जिससे कोई ये न कहे हममें उत्कर्ष नहीं है, 
जिससे कोई ये न कहे यह भारतवर्ष नहीं है
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