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11:30, 26 नवम्बर 2011 मेरी जुबां से ज़िक्र तेरा सुब्ह ओ शाम हो
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ले दे के इस हयात में बस एक काम हो
मेरी जुबां से ज़िक्र तेरा सुब्ह ओ शाम हो
मैं उम्र भर तेरी ही इबादत में बस रहू
सजदे में तेरे जिंदगी मेरी तमाम हो
खिलते रहे चमन में मोहब्बत के फूल ही
दुनिया में नफरतों का न कोई निजाम हो
रुसवा जो हो गए हैं बहुत कमनसीब हैं
ये कौन चाहता हैं जहाँ में न नाम हो
हम तो तुम्हारे वास्ते करते हैं इक दुआ
सबके लबों पे आपका उम्दा कलाम हो
नेकी की राह से कोई भटके न अब सिया
अच्छाइयों का रास्ता इतना तो आम हो