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ताश के घर-सी सत्ता, बिखर जाएगी
नशे में चूर हो गई ,किधर जाएगी ।
भ्रष्ट होने का उन्हें कितना गुमान है
पत्थरों को बाँध सैलाब तर जाएगी ।
जिसके काँधे पर चढ़ ,मिली थी कुर्सियाँ
उसकी पहचान से ही , मुकर जाएगी ।
किश्ती में छेद और नादान नाखुदा
तूफ़ान से गुज़री तो गुज़र जाएगी ।
समझो वक़्त की नज़ाकत अए रहबरो !
ये जनता भेड़ नहीं जो डर जाएगी ।
देवालय में छुपकर नहीं दाग़ी बचें
आग भड़केगी जब राख कर जाएगी ।
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