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बापू ! / जगन्नाथ त्रिपाठी

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|रचनाकार= जगन्नाथ त्रिपाठी
|संग्रह= करुणालय
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<Poem>

'''बापू !'''

ओ चिर-संयम की तपो मूर्ति !
तपो-व्योम के विभ्राट्
परिव्राजक सम्राट् !
दर्शन-गिरि-श्रृंग !
विश्व-वन्द्य बापू !
अब आओ,
आओ,
भारत को तुम्हारी आज
बेहद ज़रूरत है।
यह आर्यावर्त्त, महान साधना
औ चरित्र का महादेश
जिसे तुमने अपने
श्रम-सीकरों से सीचां था
असमय ही मुरझा गया
इस बाग़ के घेरे में
जीवन स्थिर, गतिहीन हो गया है
इसीलिए,
रंगीन क्यारियों में कीचड़ नज़र आता है
अस्तु, आओ
भानु रश्मियों से रञ्जित संदेश लिए तुम आओ
पंकज के पीले पराग में मृदु मधु बनकर आओ
हेम रंजिता भूमि-पटी पर प्रेम सुलिपि लिख जाओ
विश्व - बन्द्य बापू !
अब आओ !
और देखो-
‘रघुपति राघव राजा राम‘
की धरती पर
हिंसा का अकाण्ड
ताण्डव देखो,
देखो,
तुम्हारी अहिंसा-आस्था
और ईमान की गीता
आधुनिकता की रंगीन मधुशालाओं में
वेश्या बनकर
ठुमुक ठुमुक कर
नाच रही है
दो दानों की उम्मीद लिए
जिन्दगी सलाम बन गयी है
बेताज बादशाही मन की
हस्ती गुमनाम हो गई है
मजदूरी से घर की दुनिया
मरघट की शाम बन गई है
बापू !
तेरी कुर्बानी की
पालित-पोषित प्यारी बेटी
प्रौढ़ावस्था में इतस्ततः
बारूदी घेरे में निशि - दिन
प्राणों की रक्षा में आकुल
आखिरी साँस गिन रही है
अस्तु, अब
आओ, आओ,
विश्व - वंद्य बापू
अब आओ।।
भारत को तुम्हारी
आज बेहद ज़रुरत है !!
<poem>
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