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|रचनाकार= डॉ0 भावना कुँअर
}}
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<poem>
33.
दो कबूतर
आकर बैठ जाते
रोज सवेरे
बीती रात की फिर
हैं कहानी सुनाते
34.
चोंच मिलाते
फिर आँख चुराते
कभी कान में
कुछ बुदबुदाते
कभी सकपकाते
35.
बनाए गर
मक्खन के पुतले
पिंघलेंगे ही
जब भी वो पायेंगे
सूरज की तपन
36.
ढूँढे दिल भी
ढूँढते हैं नयन
तुझे सजन
क्योंकर लगी मुझे
ये प्रीत की लगन
37.
मेरा ये मन
हो बन में हिरण
बिन तुम्हारे
या फिर जैसे कोई
पगली -सी पवन
38.
आकर गिरे
अलकों से टूटके
दो सच्चे मोती
मन की माला में,मैं
हूँ भावों से पिरोती
39.
कल की रात
था दबे पाँव आया
सुनामी ज्वार
सबके सपनों को
दो पल में बहाया
40.
साँसों में बसा
आज भी मनोहारी
लुभावना -सा
वो पहाड़ी संगीत
हो जैसे कोई तीर्थ
41
फूलों से पिएँ
पराग के कणों को
ये तितलियाँ
उडेलती ही जाएँ
रंग,पंख सजाएँ
42
देखो जुगनू
है फिरता छिपाता
चुरा जो लाया
रोशनी की डिबिया
पर छिपा न पाया
43.
रंग बिरंगे
फूलों की ये गठरी
बाँधकर यूँ
कहाँ से हो निकली
ओ!चंचल तितली
44
रात्रि समय
चन्द्रमा के हाथ से
मोगरा माला
टूटके बिखरती
वादियाँ लपकती
45
छीनी झोपड़ी
बनकर हैवान
आँखों में बसे
स्वप्न कुचलकर
बने वो धनवान
46
चारों तरफ
फैला बाढ़ का पानी
सोचे चिड़िया
जुटाऊँ कैसे अब
मैं दाना और पानी
47
आँसू गठरी
खुलकर बिखरी
हर कोशिश
मैं समेटती जाऊँ
पर बाँध न पाऊँ
48
गई थी धुँध
नदिया में नहाने
बन कन्हैया
दौड़ा आया सूरज़
लो कपड़े चुराने
-0-
</poem>
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|रचनाकार= डॉ0 भावना कुँअर
}}
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<poem>
33.
दो कबूतर
आकर बैठ जाते
रोज सवेरे
बीती रात की फिर
हैं कहानी सुनाते
34.
चोंच मिलाते
फिर आँख चुराते
कभी कान में
कुछ बुदबुदाते
कभी सकपकाते
35.
बनाए गर
मक्खन के पुतले
पिंघलेंगे ही
जब भी वो पायेंगे
सूरज की तपन
36.
ढूँढे दिल भी
ढूँढते हैं नयन
तुझे सजन
क्योंकर लगी मुझे
ये प्रीत की लगन
37.
मेरा ये मन
हो बन में हिरण
बिन तुम्हारे
या फिर जैसे कोई
पगली -सी पवन
38.
आकर गिरे
अलकों से टूटके
दो सच्चे मोती
मन की माला में,मैं
हूँ भावों से पिरोती
39.
कल की रात
था दबे पाँव आया
सुनामी ज्वार
सबके सपनों को
दो पल में बहाया
40.
साँसों में बसा
आज भी मनोहारी
लुभावना -सा
वो पहाड़ी संगीत
हो जैसे कोई तीर्थ
41
फूलों से पिएँ
पराग के कणों को
ये तितलियाँ
उडेलती ही जाएँ
रंग,पंख सजाएँ
42
देखो जुगनू
है फिरता छिपाता
चुरा जो लाया
रोशनी की डिबिया
पर छिपा न पाया
43.
रंग बिरंगे
फूलों की ये गठरी
बाँधकर यूँ
कहाँ से हो निकली
ओ!चंचल तितली
44
रात्रि समय
चन्द्रमा के हाथ से
मोगरा माला
टूटके बिखरती
वादियाँ लपकती
45
छीनी झोपड़ी
बनकर हैवान
आँखों में बसे
स्वप्न कुचलकर
बने वो धनवान
46
चारों तरफ
फैला बाढ़ का पानी
सोचे चिड़िया
जुटाऊँ कैसे अब
मैं दाना और पानी
47
आँसू गठरी
खुलकर बिखरी
हर कोशिश
मैं समेटती जाऊँ
पर बाँध न पाऊँ
48
गई थी धुँध
नदिया में नहाने
बन कन्हैया
दौड़ा आया सूरज़
लो कपड़े चुराने
-0-
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