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|रचनाकार= डॉ0 भावना कुँअर
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17.
छनती रही
चाँद और तारे भी
गाते दिखे रागिनी
18.
पीर की गली
पड़े फलक,पर
मीलों फिर भी चली
19.
खत्म न हुआ
यातना का सफ़र
बरसने लगा था
ओलों का भी कहर
20.
पीर की गली
रिसता मन लिये
क्या होगी कभी भोर !
21.
मछली जैसे
बींधते हुए तुम
व्यंग्य बाणों से मन
22.
नहाती रही
कि क्यूँ रूठ बैठा था
वो बेदर्द प्रभात
23.
कैदी सुबह
अँधेरे को धकेल
भागती चली आई
24.
नोंचे किसने
वो मधुर कोकिला
सुख-दुख कहने
25.
आसमान से
बाग और बगीचे
जंगल में हिरना
26.
वे देते गए
मूक सहती गई
मैं खुद को खोकर
27.
मिलती रही
गम का खारा जल
घूँट-घूँट पीकर
28.
दुष्ट हवा ने
बिना खता के पंछी
क्यूँ हैं इसने रौंदे ?
29.
नीम का पेड़
निबौंलियाँ,जी भर
उसे, गुदगुदाएँ
30.
अप्सरा बनी
रेशम की ओढ़नी
पहन इतराईं
31.
गुमसुम है
सदमें में शायद
है भूली पहचान
32.
देख रही थी
जाल के चारों ओर
बेरहम शिकारी
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