भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=उभरते प्रतिमानों के रूप / हरिवंशराय बच्चन
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
यह विखंडित मूर्ति
मथुरा की सड़क पर
मिली मुझको,
शीश-हत,
जाँघें पसारे
खुले में विपरीत-रति-रत
अरे, यह तो पंश्चुली है!
यह कुमारी,
एक व्याभिचारी मुहल्ले की गली में
गले में डाले सुमिरनी,
नत-नयन,
प्रवचन रहस्य-भरा न जाने कौन, किसको,
मूक वाणी में सुनाती।
यह अछूती,
स्वच्छ पंकज की काली है!
ओ गरूड़,तेरी जगह तो गगन में,भूमि पर लोगों ने उसे सिर झुकाना नहीं छोड़ा कैसे पड़ा है,पोटली की भाँति गुड़मुड़।घूरना था जिस नज़र से सूर्य कोतू मुझे अनिमिष देखा है।बाहुओं में अब कहाँ बल,उम्र मेरी ढल चली है।
पाठ पहला,पाठ अंतिम,विश्व की इस पाठशाला काकि पहचानो स्वयं को,सिंह तू।कवि के यहाँ चल।है वहीं कांतार, अमित-प्रसार,जिसमें तू निशंक-विमुक्त विचरण,मुक्त गर्जन कर सकेगा।तू सिखा सौ जन्म तक भी रोज़मिमियाना बकरियाँ छोड़नेवाली नहीं हैं।और आस्था नेमेरे यहाँ कल से ही तुझेहरि-वंश प्रतिद्वंद्वी मिलेगा।साथ दे आवाज़, चाहे दे चुनौती,सोचनामुझको नहीं,स्वीकार करता हूँ इसी पल;है नहीं सौभाग्य इससे बड़ा कोई,मित्र समबल मिले,या फिर शत्रु समबल!
आज दे प्रश्रय हृदय मेंस्वप्नगत रूमानियत कोमैं नहीं तुझसे कहूँगा,तू नबी है।कटु-कठोर यथार्थ जीवन का बहुत बार-कुछदेख मैं अब तक चुका हूँ,और तेरा जन्म हीरूमानियत की लाश के ऊपर हुआ है।जो तुझे मैं दे रहा हूँएक मानव के लिए,बस, एक मानव की दुआ है।तुझे मैं अपने भवन ले चल रहा हूँ-वह कुमारी क्या प्रसव की पीर जाने,पुंश्चली जाने सुवन का स्नेह कैसे!मैं प्रसव की वेदना,वात्सल्य-दोनों जानता हूँ,क्योंकि कवि हूँ।जो अपने आप में हो अस्त,अपने आप में होता उदय,मैं स्वल्प रवि हूँ-एक ही में माँ तथा शिशु!-चल, वहीं पलआत्मजों के बीच मेरे, हो न उन्मन,मैं तुझे संवेदना ही नहीं दूँगा,समा लूँगा तुझे अपने मेंकि तुझमें समाऊँगा।माँ तुझे दूँगा,स्वयंजो शिशु सनातन।(सार्थक है नाम बच्चन)