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<poem>
कंस लूट कर भाग गया है
हारी हरि की राधा रानी
रिसे खून की गर्मी बोली
अब चुप रहना है बेमानी।

देख रही द्वापर में जाकर
पूरे एक महाभारत को
कितने नग्न हो गए थे वे
नंगी करने में औरत को
नग्न प्रदर्शन है जब युग ही
क्या तन ढकना है बेमानी।

मान राजसी क्यों रम्भा का
और अहिल्या क्यों अभिशापित
यह फर्क सोच है, देह नहीं
औरत शोषक औरत शोषित
शोषण-तंत्र कांच का घर है
लाज पहनना है बेमानी।

याद सभ्यता का बर्बर युग
लूटी जाती थी अबलाएँ
कई पत्नियों को रखने का
बाहुबली खुद शास्त्र रचाएं
उस युग के विद्रूप समय को
जिन्दा करना है बेमानी।

नारी-इच्छा-मान किताबी
घर के भीतर वह बांदी है
दोषारोपण सिर मढ़ने की
लंपट को भी आजादी है
घर के भीतर की हिंसा में
तिल-तिल घुटना है बेमानी।

किस आशा की ताकत पर वह
अपशब्द, गालियॉ खाती है
हद है, पीहर से बाबुल तक
फुटबाल बना दी जाती है
खुद को दोषी मान जलाना-
फॉसी चढना है बेमानी।

रूढ -कैचियां चला बेटियों-
को औरत में ढाला जाता
जितना-जितना बढे पुरूषपन
उतना-उतना छांटा जाता
बेटी को बस औरतपन से
दीक्षित करना है बेमानी।

लड़का जनमे तो लड़के की
मॉ में ताकत आ जाती है
लड़की के पैदा होते वह
किस शोषण का भय खाती है
औरत, औरत की ताकत हो
उसका डरना है बेमानी।

इस उपभोक्ता संस्कृति में क्यों
अबला खुद उत्पाद बनी है
हासिल का कुछ अर्थ नहीं बस
सबलों का व्यापार बनी है
खुद को छलना किसके खातिर ?
पथ से गिरना है बेमानी।

नर-नारि काम के ज्ञानी हो
हो शमित काम का ज्वाल रूप
वह मंत्र उपेक्षित क्यों अब तक
जिसमें उज्जवल है बाल रूप
काटते नहीं जड़ शोषण की
डाल काटना है बेमानी।

भूमण्डलीकरण का चालक,
नारी को भोग्या बना रहा
भारत अनुबंधित है उससे
उसकी हॉ मे हॉ मिला रहा
सामंती नवनस्लवाद को,
दोस्त समझना है बेमानी।

काम-काज की दिनचर्या में
सैनिक जैसा उन्मेष रहे
योनहीनता घर कर न सके
मन स्वाभिमान से लैस रहे
रूढ़ वर्जना अग मुकाबिल,
पीछे हटना है बेमानी।

शिक्षा में नारी-शिक्षा का
समाहार हो जन सहमति भी
इस सृष्टि स्वरूपा नारी की
जन-जन में आए जाग्रति भी
युग-सत्य असंभव क्रांति बिना
युग को छलना है बेमानी।

काम-कला में निपुण नारियां
स्वच्छंद जिन्दगी रच सकती
गर्भपात जैसे कृत्यों से
तकनीक ज्ञान से बच सकती
संयम खोकर कामुकता पर
तन का बिछना है बेमानी।

पुरूषों की मरजी पर सहमत
नारी, नारी को कोस रही
लिंग परीक्षण करवाकर क्यों
नारी को ही दे मौत रही
अपने हाथों अपना संख्या
बल कम करना है बेमानी ।

कोमल काया जड़ फसाद की
काया को वज्र बनाना है
नारी-मॉस चबाते हैं वे
मुझको काली बन जाना है
है समाज आधा नारी का
दाय छोड ना हे बेमानी।

क्यों न साफ हो भ्रूण पुत्र का
क्यों न पुत्रियां पाली जाएं
आखिर कैसे रूक पाएगी
पुरूषवाद की बर्बरताएं
रच न सकी नारीमय दुनिया
तो हर रचना है बेमानी।

व्याह करूँ क्या कंसा तुझसे
और करूँ क्या पैदा कंसी
कान्हा अब टूटी बैसाखी
टूट गई वो भ्रामक बंशी
कलियुग विधवा जीवन-सा है
द्वापर जपना है बेमानी।

ग्रन्थों में जो भरा पड़ा है
मिथक तोड़ना उस राधा का
जागो-जागो हे मातृ-शक्ति
सम्मान शीर्ष हो मादा का
सिर्फ विरहणी के अर्थो में
जीना-मरना है बेमानी।
</poem>
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